मंगलवार, 23 मार्च 2021

लौरिया की यात्रा; सम्राट अशोक और चंद्रशेखर

गृह राज्य बिहार में रहते हुए जिस पहले पर्यटन स्थल को हमने देखा, वह चंपारण था. जी हां, वही चंपारण जिसे मोहनदास करमचंद गांधी को पहले महात्मा, बाद में राष्ट्रपिता बनाने वाली धरती के रूप में याद किया जाता है. इसी जमीन पर बापू ने देश का पहला आंदोलन किया, जिसने अंग्रेजों का ध्यान खींचा था. ये बात अलग है कि बापू का वह चंपारण आज दो अलग-अलग जिलों के रूप में जाना जाता है, पूर्वी और पश्चिमी चंपारण. बापू आज के पूर्वी चंपारण आए थे, जिसका जिला मुख्यालय मोतिहारी है. मैं जिस चंपारण के पर्यटन स्थल की बात कर रहा हूं, वह पश्चिमी चंपारण कहलाता है और इसका जिला मुख्यालय बेतिया है. इसी चंपारण में एक जगह है लौरिया. इसी लौरिया के एक चीनी मिल में हमारे नानाजी नौकरी किया करते थे.

लौरिया का अशोक स्तंभ. (फोटो साभार- बुद्धिस्टसर्किटबिहार.कॉम)


बात 1980 के दशक की है. पश्चिमी चंपारण से सटा हुआ पूर्वी चंपारण और उससे लगा सीतामढ़ी जिला, जहां हम रहते थे. बेतिया का नाम सुना करते थे, वहां हमारे समाज की कई बेटियां बसती थीं. लौरिया नया था. नानाजी इसी लौरिया में करीबन 6-7 साल रहे. इन वर्षों के दौरान हम लोग दो या तीन बार ही लौरिया गए. उस समय बड़ी कोफ्त हुआ करती थी, जब अंतर्देशीय पत्रों से पता चलता था कि हमारी मौसियां गर्मी की छुट्टियों में मौसेरे भाइयों के साथ पूरा महीना बिताने लौरिया आती हैं. हम लोग, इन छुट्टियों का इस्तेमाल आम खाने में किया करते थे, यानी गांव जाते थे. इसलिए यह कतई संभव नहीं था कि महीनाभर लौरिया में बिताया जाए. नानाजी सन् 84-85 के आसपास इस कस्बे में शिफ्ट हुए थे. हम लोग संभवत एक साल बाद दो या बमुश्किल 3 दिनों के लिए वहां गए थे.

इतना ज्ञान नहीं था कि लौरिया जाने से पहले सामान्य ज्ञान की किताबों का अध्ययन करें कि वहां ऐतिहासिक महत्व की क्या चीजें हैं. हमारे लिए इतना ही काफी था कि हम नानाजी के पास जाएं. लिहाजा, जब ये योजना बनी कि लौरिया जाना है, खुशी का पारावार न रहा. हम तीनों ही भाई बचपन से रेलवे टाइम-टेबल देखने-पढ़ने और गुनने के आदी थे. बिहार के सीमावर्ती इलाकों में रहते हुए भी, केरल के त्रिवेंद्रम (अब तिरुअनंतपुरम) से मद्रास (अब चेन्नई) जाने वाली ट्रेनों की समय-सारणी हो या जम्मू से हावड़ा तक की दूरी नापने वाली ट्रेन, टाइम-टेबल से देश का भूगोल जानने की ललक हम तीनों में ही थी. जाहिर है सीतामढ़ी से लौरिया के 'टूर' की योजना बनते ही हमने इसके रेलमार्ग का अध्ययन शुरू कर दिया था. सीतामढ़ी से नरकटियागंज तक ट्रेन से और उसके बाद...! नरकटियागंज से लौरिया तक ट्रेन नहीं थी, हमारी जिज्ञासा चरम पर थी.

खैर, वह दिन आया, दरअसल रात आई थी जब हम लोग ट्रेन में सवार हुए. पैसेंजर ट्रेन, जो अगले लगभग 150 से 200 किलोमीटर की दूरी 7 से 8 घंटों में तय करने वाली थी, हम उसमें सवार हो चुके थे. सहयात्रियों की संख्या कम थी, इसलिए हम तीनों भाइयों को सोने की जगह मिल गई. सुबह का पौ फटा तो हम नरकटियागंज में थे. बिहार-उत्तर प्रदेश की सीमा से सटा नरकटियागंज, दरभंगा-नरकटियागंज रेलखंड का आखिरी स्टेशन था. बहुत साल के बाद यहां से आगे छतौनी के पास गंडक नदी पर जब रेल पुल बनकर तैयार हुआ, तब इस रास्ते से ट्रेनों का संचालन शुरू हुआ. बहरहाल, नरकटियागंज स्टेशन पर उतरकर दैनिक कार्यों से निवृत्त होने के बाद पता चला कि आगे की यात्रा टमटम यानी तांगे से होने वाली है. दिल बाग-बाग हो उठा.

मुनि नाम की घोड़ी वाले तांगे पर नरकटियागंज से करीबन 15 किलोमीटर दूर लौरिया का सफर शुरू हुआ. तांगेवाला प्रवीण था, वह रास्ते में उतर जाता, लेकिन मुनि सरपट भागती रहती. बीच-बीच में वह जोर की आवाज लगाता, 'हे मुनि....' और घोड़ी का ठुमकना बढ़ जाता, हम बच्चे खिलखिला उठते. आधा-पौने घंटे में हम लौरिया में थे. छोटा सा कस्बा, ज्यादा भीड़-भाड़ नहीं, चीनी मिल ही सब कुछ था, तो कॉलोनी के बाहर हमारा तांगा जा खड़ा हुआ. वहां से 100-150 मीटर की दूरी, यानी नानाजी के क्वार्टर तक हमने कितनी उत्सुकता से पूरी की, इसका अनुभव शब्दों में करना मुश्किल है. घर से बाहर घूमने जाने, नाना-मामा-मौसी और नानी (जिन्हें हम लोग मां कहते थे), उनसे मिलना हम लोगों को भाव-विह्वल कर गया.

मुश्किल से दो-तीन दिन ही हमें लौरिया में रहना था, इसलिए आसपास के इलाकों की सैर मुश्किल थी, जो कुछ लौरिया में था, वहीं जाना मुमकिन था. पता चला कि यहां नंदनगढ़ पहाड़ है, साथ ही सम्राट अशोक का स्थापित किया हुआ स्तंभ भी. मैं इसी सामान्य ज्ञान की बात कर रहा था, जिसका ज्ञान लौरिया में हमें हुआ. शाम के समय मामाजी के साथ हम लोग नंदनगढ़ पहाड़ घूमने गए. वहां पहली बार अशोक की लाट देखी. जैसा शेर अखबारों या पत्रिकाओं और रुपए पर दिखता है, उसे पाषाण रूप में देख बड़ा रोमांच हुआ. यह कहना सही होगा कि बाद के दिनों में जब कभी इससे जुड़े प्रश्न देखने को मिलते कि अशोक स्तंभ में शेर के साथ और कौन-कौन से जानवर हैं, तो हमारा मन पहले लौरिया के नंदनगढ़ पहाड़ पर जाता और वहां के चित्र को हम शब्द के रूप में सामने ला रखते थे.

लौरिया में दूसरे दिन की सुबह और रोचक होने वाली थी. शहर की मामूली सैर पर हम लोग निकले थे. बाबूजी के साथ मैं भी था. पता चला कि कोई चंद्रशेखर (भारत के पूर्व प्रधानमंत्री) आने वाले हैं. चंद्रशेखर, लौरिया क्यों आने वाले हैं, इससे जाहिर है मुझे कोई मतलब नहीं था. चूंकि लौरिया घूमने निकले ही थे, तो चंद्रशेखर क्या हम किसी को भी देखने जा सकते थे. बाबूजी के साथ चंद्रशेखर को देखने गए. रास्ते में बाबूजी ने बताया कि वह आदमी पूरे भारत की पदयात्रा कर रहा है. कन्याकुमारी से पैदल चले आ रहे व्यक्ति की कहानी भावुक करने वाली थी, इसलिए देखने की जिज्ञासा बढ़ती ही जा रही थी. 

लौरिया के जिस बड़े मैदान में चंद्रशेखर आने वाले थे, वहां हम उनसे पहले पहुंच गए. यह उस समय की बात थी, जब चंद्रशेखर देशस्तर के नेता तो हो गए थे, लेकिन सत्ता से दूर थे. इसलिए माथे पर 'मुरेठा', यानी तौलिया लपेटे और घाम (पसीना) से सने चंद्रशेखर को करीब से देखना संभव था. मैंने देखा, अत्यधिक थकान से चूर धोती-कुर्ते वाला शख्स मेरे ठीक बगल से गुजरा. उसके शरीर की गंध तक मैं महसूस कर सकता था. थकान असह्य थी, लेकिन विश्वास गजब का था. चंद्रशेखर ने आंखें नीची की और मुस्कुराए..., वह मुझे देखकर निश्चित ही मुस्कुराए नहीं होंगे, लेकिन मेरे जैसे और भी लोग थे, जिनकी तादाद और गगनभेदी नारों की वजह से मुस्कान उनके चेहरे पर आई होगी. मैं आज भी रोमांचित हो उठता हूं कि इतनी बड़ी हस्ती, कैसे मेरे बिल्कुल पास से गुजर गई.

थकान के बावजूद उनकी चाल में तेजी थी. पसीना पोछते हुए भी ललाट दिव्य लग रहा था. मंच बहुत बड़ा नहीं था, लेकिन हस्ती बहुत बड़ी थी. भीड़ को भी इसका अंदाजा था. मुझे याद नहीं कि उस समय चंद्रशेखर ने अपनी अलग पार्टी बनाई थी कि नहीं, लेकिन यह बात गारंटी के साथ कह सकता हूं कि लौरिया में उस दिन उनकी सभा में उनके चाहने वाले ज्यादा थे. अगर उनका कोई राजनीतिक दल था भी, तो उससे ज्यादा चंद्रशेखर को देखने और सुनने वाले लोग ज्यादा पहुंचे थे. मैं भी ऐसे ही श्रोताओं की भीड़ में था. वे चूंकि मेरे बहुत करीब से गुजरे थे, इसलिए मैं अलग ही अनुभूति में था. मुझे उनके भाषण का एक भी शब्द याद नहीं, लेकिन उनकी सभा का पूरा चित्र आज भी मस्तिष्क में है.

बाद के दिनों में जब मैं 'माया' और अन्य पत्र-पत्रिकाओं का पाठक बना और चंद्रशेखर के लिए 'भोंडसी का संत' जैसे विशेषणों के बारे में जाना, तब भी उस सभा की यादें बनी रहीं और उनके लिए की जाने वाली कोई भी टिप्पणी, चंद्रशेखर के विशाल व्यक्तित्व की दिमाग में बनी छवि को धूमिल नहीं कर पाई. लौरिया में उसके बाद हम लोग महज एक दिन और रहे थे. नानाजी के चीनी मिल की जीप ने हमें वापस नरकटियागंज तक छोड़ दिया था. जीप के ड्राइवर का नाम 'मटुकधारी' आज भी याद है. उसके बाद भी जब कभी लौरिया गए, वही मटुकधारी मिला. यह बड़ा रोचक है कि वयस्क होने के बाद सीतामढ़ी से पटना की कई यात्राओं या पटना में रहते हुए भी हम कभी वैशाली नहीं जा पाए, जहां भी अशोक स्तंभ है. आगे जब कभी वैशाली जाना हुआ तो तुलना करने के लिए हमारे पास लौरिया की यादें होंगी. सम्राट अशोक का स्तंभ होगा और होंगे साथ में चंद्रशेखर...!

सोमवार, 22 फ़रवरी 2021

सीता के पास, जनकपुर से दूर

बिहार और नेपाल में रोटी-बेटी का संबंध है, यह अर्से से सुनते आए हैं. सन् 1983 के आखिरी दिनों में जब पिताजी का तबादला हुआ तो गोपालगंज से सीता की धरती यानी सीतामढ़ी आ गए. यह हिंदू धर्म की ख्यातिलब्ध और देवी के रूप में मान्यता प्राप्त सीता, जानकी, जनकदुलारी जैसे कई नामों से प्रसिद्ध रामायण के राम की पत्नी का जन्मस्थान है. सीतामढ़ी शहर से महज 5 किलोमीटर दूर पुनौरा जो अब पुनौराधाम हो चुका है, मान्यता है कि सीता का जन्म यहीं हुआ. धरतीपुत्री सीता के नाम पर ही इस शहर को सीतामढ़ी के नाम से जाना जाता है. उत्तर प्रदेश में भी इसी नाम से मिलता-जुलता एक शहर है. दावे किए जाते हैं कि रामायण के उत्तर कांड में जब सीता ने वर्षों की उपेक्षा से तंग आकर धरती-मैया से वापसी की प्रार्थना की, तो यहीं पर पृथ्वी ने उन्हें वापस अपनी गोद में समेट लिया था.

जनकपुर का जानकी मंदिर. (फोटो साभार- सुमित/फेसबुक)


धार्मिक मान्यताओं और भौगोलिकता के आधार पर बिहार का सीतामढ़ी, जनक-जननी के जन्मस्थान की ख्याति पा चुका है. यहां से नेपाल का जनकपुर भी कुछ ही दूरी पर है, लिहाजा पौराणिक काल में यह विदेह राजा जनक की रियासत का अंग रहा होगा, भौगौलिकता इसका प्रमाण देती है. हम इसी सीतामढ़ी में 80 के दशक के शुरुआत में आए थे. यहां आने के बाद स्थानीयता का बोध होने से पहले से ही जनकपुर नाम से हम परिचित हो गए थे. गांव में या हमारे सीतामढ़ी वाले घर (डेरा) पर आने वाले लोग अक्सर सीतामढ़ी और जनकपुर के कनेक्शन की चर्चा करते और साथ ही बताते कि क्यों बेटियों की शादी पश्चिम दिशा की तरफ नहीं करनी चाहिए. दरअसल, सीता को विवाहोपरांत जिन कष्टों का सामना करना पड़ा, उसको लेकर मिथिला में जनश्रुति प्रचलित है कि पश्चिम की तरफ बेटियों को ब्याहना उसे देवी या भगवती के रूप में मान्यता तो दिला देगा, लेकिन बिटिया को जीवनभर सीता की तरह कष्ट का भी सामना करना पड़ सकता है. अब भला कौन माता-पिता ऐसा जोखिम मोल लेना चाहेगा! ये अलग बात है कि किसी भी तरह की मान्यता या जनश्रुति पर अमल करने के प्रति मिथिलावासी कभी बाध्य नहीं होते. धार्मिक आचार-विचार की बात हो या सामाजिक व्यवहार, देश के अन्य भूभागों में रहने वालों की तरह मैथिल भी परिवर्तन को अनिवार्य मानते हैं.

बहरहाल, हम बात करते हैं सीतामढ़ी और जनकपुर की. सीतामढ़ी से इशाण कोण यानी ठीक उत्तर-पूर्व की तरफ आप बढ़ेंगे तो भिट्ठामोड़ नाम की जगह है, जहां पर स्थित भारत-नेपाल सीमा चौकी को पार कर आप पड़ोसी देश में प्रवेश करते हैं. भिट्ठामोड़ की सीतामढ़ी से दूरी 30-35 किलोमीटर है और वहां से जनकपुर करीब 20 किलोमीटर. यानी कि कुल जमा 50-55 किलोमीटर की दूरी लोग ऐवें ही तय कर सकते हैं. सीतामढ़ी से बाहर रहने वालों, खासकर हमारे रिश्तेदारों के बीच यह आम धारणा थी कि ये लोग तो पता नहीं कितनी बार जनकपुर जा सकते हैं. जनकपुर के माहात्म्य को लेकर एक मान्यता ये भी है कि सभी तीर्थस्थलों पर आप जाएं या न जाएं, एक बार अगर जनकपुर हो आए, तो सभी तीर्थों का फल मिल सकता है. इतनी धारणाओं और कट्टर मान्यताओं के बावजूद हम लोग जनकपुर नहीं गए थे. सीतामढ़ी में रामनवमी और विवाह पंचमी, यानी जिस दिन राम-सीता का विवाह हुआ था, दोनों ही अवसरों को खास तौर पर मनाया जाता है. विवाह पंचमी तो महीनेभर का उत्सव आज भी है, जब देश के अलग-अलग राज्यों और नेपाल से बड़ी संख्या में श्रद्धालु पहुंचते हैं. इन दोनों ही अवसरों पर कई-कई बार जनकपुर जाने की योजनाएं बनीं, लेकिन ग्राम्य-जीवन का प्रेम, धार्मिकता या पर्यटन पर हावी रहा. हम छुट्टियों में गांव चले जाते, जनकपुर बेचारा....., रह जाता.

जनकपुर जाने की एक वजह और थी, वह यह कि नेपाल का यह शहर 20वीं सदी की शुरुआत में हमारे पितामह यानी दादाजी लोगों का शहर हुआ करता था. दादी से सुनी तथ्यात्मक कहानी कुछ यूं है कि वर्ष 1930 में इंग्लैंड में आयोजित गोलमेज सम्मेलन में भारत के कई राजाओं-महाराजाओं ने भी शिरकत की थी. इन्हीं में से एक थे दरभंगा महाराज. यूं तो दरभंगा महाराज जमींदार ही थे, लेकिन अंग्रेजों का सान्निध्य भी उन्हें भाता था. महाराज आधुनिक सोच के थे, लेकिन क्षत्रिय न होकर ब्राह्मण कुल के थे. उनके स्तर पर इंग्लैंड जाने की राह में कोई रोड़ा नहीं था, लेकिन ब्राह्मण समाज समुद्र-लंघन यानी सागर के रास्ते विदेश यात्रा को निषेध मानता था. अब महाराज तो महाराज ठहरे, उन्हें जाना था, सो गए. लेकिन इधर, उनके कुल-गोत्र या समजातीय समाज के लोगों ने इसे वर्जित मानते हुए महाराज का बहिष्कार करने की योजना बना ली. महाराज थे, तो सीधा बहिष्कार मुश्किल था, इसलिए मिथिला क्षेत्र के कई गांवों के श्रोत्रीय ब्राह्मण समाज के लोगों ने नेपाल की तरफ पलायन करने का निर्णय लिया. इन्हीं लोगों में हमारे दादा और उनके दोनों भाई भी शामिल थे. नेपाल में उस समय राणा का शासन हुआ करता था, दरभंगा महाराज का 'कृत्य', उन्हें मालूम था ही, सो इन उच्च कुल ब्राह्मण परिवारों को उन्होंने सहर्ष अपने देश में शरण दी. जनकपुर, नेपाल के महोत्तरी जिले में पड़ता है. इसी जिले में धनुषा नाम की जगह भी है, वहीं पर हमारे पितामहों ने डेरा जमा लिया. संभवतः एक दशक से कुछ ज्यादा समय तक ये लोग वहीं रहे. 

यह पूरा प्रकरण हमारे मैथिल समाज 'स्वदेशी-बिलेंती' के नाम से आज भी सुना जाता है. जनकपुर में बसे कई परिवार इसी पलायन-कथा का हिस्सा हैं, जो प्रकरण समाप्त होने के बाद भी लौटकर नहीं आए. लेकिन अभी हम कहानी पर लौटते हैं, कुछ परिवारों के देश छोड़कर जाने से मिथिला को कोई फर्क भले न पड़ता हो, भारत में स्थित रिश्तेदारों और दरभंगा महाराज को तो पड़ता ही था. महाराजा भी चाहते थे कि उनकी वजह से पलायन करने वाले लौट आएं. लेकिन बाधा यह थी कि 'पाप' (समुद्र-लंघन का) करने वाले जब तक 'प्रायश्चित' नहीं कर लेते, उन्हें परिष्कृत समाज में वापस शामिल कैसे किया जाए. अब महाराज को तो प्रायश्चित करने के लिए कहा नहीं जा सकता, लेकिन उनसे जुड़े लोगों को तो यह करना ही था. गंगा किनारे जाकर वहां का बालू निगलिये, इसका प्रमाण भी होना चाहिए, तभी समाज में वापसी तय होगी. दादी सुनाती थीं कि उनके कई रिश्तेदारों ने सिमरिया (बिहार के बेगूसराय जिले का वह स्थान जहां मैथिल गंगास्नान करने जाते हैं) जाकर प्रायश्चित किया. किंवदंती यह भी है कि महाराज ने भी संभवतः कुछ उद्यम किया, ताकि उनके अपने लोग स्वदेश लौट सकें. अंततः स्वदेशी-बिलेंती का यह अध्याय समाप्त हुआ और हमारे दादाजी का परिवार वापस मधुबनी जिले में स्थित अपने गांव लौट आया. अब जबकि इस घटना के लगभग 50 साल बाद हम जनकपुर जा रहे थे, तो पिताजी की यह इच्छा कि उस जगह को देखें जहां उनके पिता ने वर्षों बिताए. मेरे कई ताऊजी भी इस ऐतिहासिक घटना के गवाह रहे थे, हम भी गांवों में जनकपुर से गांव तक की पैदल यात्राओं की कहानियां सुना करते थे, इसलिए हम लोगों की भी साध थी कि कहां है वह धनुषा, जहां दादाजी लोग रहे होंगे.

यही वजह थी कि हम सीता के तो पास थे, लेकिन जनकपुर से लंबे अर्से तक दूर ही रहे. बहरहाल, 90 के दशक के शुरुआती साल में आखिरकार वह दिन आ गया, जब हम लोग जनकपुर जाने का निश्चय कर ही बैठे. सीतामढ़ी के अत्यंत बड़े से मोहल्ले प्रताप नगर में हम लोग रहा करते थे, जहां से बस स्टैंड और रेलवे स्टेशन की दूरी महज कुछ पलों की ही थी. हमारा स्कूली जीवन शुरू हो चुका था, लिहाजा जनकपुर के लिए जाने वाले रास्ते, सड़कों और बसों के बारे में हमारे पास भरपूर जानकारी थी. यहां तक कि कौन सी बस जनरल है या कौन सी वीडियो कोच, उनका समय तक हमें मालूम था. किस बस की सीट गद्देदार और मुलायम, कौन सी बस सीधे भिठ्ठामोड़ तक ले जाती है या कौन सी रुक-रुककर गंतव्य तक पहुंचाती है, इसका पूरा विवरण हम लोगों के पास था. खासकर मेरे पास, क्योंकि माता-पिता के बाद घर के तीसरे सबसे बड़े सदस्य के रूप में सीतामढ़ी को भरपूर आंखों से देखने वाला मैं ही था. लेकिन दोनों छोटे भाइयों का स्कूल चूंकि बस स्टैंड के पास ही था, तो स्थानीयता के आधार पर बसों की टाइमिंग में मिनट भर के भी अंतर से मैं, पिछड़ जाता था.

खैर, सीतामढ़ी से जनकपुर जाने की योजना बन चुकी थी. वहां कैसे रहना है, किन-किन लोगों से मिलना है, उस शहर में क्या-क्या हैं, इन जानकारियों से हम तीनों भाई कम ही बावस्ता थे. जाहिर है जिसने मम्मी या बाबूजी से जितना जान लिया, वह अन्य दोनों पर अपने उस ज्ञान की शेखी बघारने का कोई मौका नहीं चूकता था. छोड़िए....जनकपुर चलते हैं! आखिरकार वह दिन आ गया, जब हम दोपहर से पहले किसी 'शानदार टाइप की बस' से भिठ्ठामोड़ के लिए रवाना हुए. खिड़की किनारे बैठने का लोभ तीनों को था, लेकिन जनकपुर जाना उससे ज्यादा महत्वपूर्ण, इच्छाओं का दमन कर दिया गया. बस नियत समय पर रवाना हो गई. सीतामढ़ी शहर छोड़ने से पहले मेहसौल की रेलवे गुमती आती थी, उसके पार करते ही जनकपुर पहुंचने की ललक तेज होने लगी. सफर लंबा नहीं था, बस भी सामान्य से तेज ही चल रही थी, लेकिन गंतव्य तक पहुंचने की इच्छा इतनी तीव्र थी कि सरपट दौड़ती बस को हम हवाई जहाज बना देना चाहते थे. महज आधा-पौन घंटे या घंटेभर की यात्रा के बाद बस ने भिठ्ठामोड़ बस स्टैंड का स्पर्श किया. ड्राइवर के ब्रेक पर पैर देने से पहले हम सीट छोड़ चुके थे. ठीक-ठीक याद नहीं, लेकिन बस से उतरने वाली सवारियों में कम से कम हम तीनों भाई, बहुत पिछड़े नहीं थे, यह दावा तो किया ही जा सकता है.

भिठ्ठामोड़ से महज 5 किलोमीटर दूर है नेपाल का जलेश्वर. यहां एक शिव मंदिर है. मंदिर के गर्भगृह में जाएं तो शिवलिंग आपको जल में डूबा हुआ दिखेगा. मान्यता है कि जल में प्लावित शिवलिंग की वजह से ही इस स्थान का नाम जलेश्वर पड़ा. जनकपुर जाने वाले यात्रियों में से कई श्रद्धालु जलेश्वर महादेव का दर्शन कर ही जनकपुर जाते हैं, हालांकि यह स्थानीय लोगों के ज्यादा करीब है. बहरहाल, भिठ्ठामोड़ से जलेश्वर के बीच  भारत-नेपाल की सीमा चौकी है. आम यात्रियों से सामान्य पूछताछ भी नहीं होती, हां आपके पास अतिरिक्त या भारी-भरकम सामान या कुछ संदिग्ध वस्तु दिख जाए, तो बगैर पूछताछ और छानबीन के बॉर्डर क्रॉस करना मुश्किल है. पर्यटकों और आम लोगों को पहचानना, सुरक्षाबल के जवानों को बखूबी आता है. हमें अपने पहले जनकपुर यात्रा या बाद के वर्षों में कई बार उस रास्ते गुजरने पर भी कभी नहीं रोका गया, यह भारत की तरफ से तैनात एसएसबी और नेपाल प्रहरी के जवानों की तीक्ष्ण और सूक्ष्म नजरिये की परख को ही बताता है.

एक बात और याद करने लायक है, हमारी पहली जनकपुर यात्रा तक नेपाल पूर्ण रूप से लोकतंत्रात्मक देश में नहीं बदला था. वहां नेपाल नरेश का ही शासन था. इसलिए जलेश्वर से जनकपुर तक की यात्रा का एक नियम बड़ा विशिष्ट या कह लें कि रोचक है. जलेश्वर से जनकपुर महज 29-30 किलोमीटर दूर है. इतनी दूरी कोई भी बस ज्यादा से ज्यादा आधे-पौने घंटे में तय कर सकती है. लेकिन नेपाल नरेश के बनाए नियमों के मुताबिक इस दूरी को ठीक एक घंटे यानी 60 मिनट में पूरा करने की अनिवार्यता लागू थी. बस नियत समय से चलेगी, 60 मिनट में ही पहुंचेगी, रास्ते में प्रहरी-दल उसकी रफ्तार की जांच कर सकता है, आम भारतीय पर्यटकों को ऐसा अनुभव, खासकर नेपाल जाने वालों को शायद ही होता था, इसलिए जनकपुर जाने के बीच के रास्ते में ये बातें हास्यबोध पैदा करती थीं. ये अलग बात है कि बस ड्राइवरों ने इस नियम को एक 'तोड़' ढूंढ निकाला था..., वे जलेश्वर बस अड्डे से निकल कुछ दूर आगे चलकर बस रोक देते थे. 15-20 मिनट की ब्रेक के बाद बस हवा से बातें करने लगती थीं. कारण पूछिए तो जवाब नहीं मिलता था, सवारियां भी इस रफ्तार बढ़ाने वाली जुगाड़ से खुश ही होते थे.

जनकपुर धाम तक अब ब्रॉड गेज की ट्रेन पहुंच गई है. (फोटो साभार- Janakpurdham:FB Page)


आखिरकार, महज दो-ढाई घंटे की यात्रा के बाद हम जनक-जननी के मायके पहुंच गए. पहला उद्देश्य धर्मशाला की तलाश थी, जो बहुत ही आसानी से मिल गई. फिर जानकी मंदिर जाना था, लेकिन उससे पहले 1930 के दशक में स्वदेशी-बिलेंती प्रकरण के दौरान जो लोग, स्वदेश नहीं लौटे, ऐसे कुछ हमारे परिजन जनकपुर में ही थे. इसलिए जानकी मंदिर से पहले उन लोगों से मुलाकात की चाह थी. अच्छा ये रहा कि पता चला कि जानकी मंदिर के इर्द-गिर्द ही वे लोग किसी मोहल्ले में रहते हैं, तो उन तक वाया जानकी मंदिर पहुंचना आसान हो गया. जहां तक याद है, दोपहर बाद हम लोग जनकपुर के उस भव्य जानकी मंदिर परिसर में पहुंच गए. आज वहां काफी हलचल रहती है, 90 के दशक में विशिष्ट अवसरों पर ही भीड़ हुआ करती थी, इसलिए हम जब पहुंचे थे, मंदिर परिसर पूरा शांत और रमणीक लग रहा था. आप घंटों तक वहां बैठे रह सकते थे. खासियत यह भी थी कि चप्पल-जूते कहीं भी उतार दें, कोई ले नहीं जाता था. (बाद के वर्षों में ऐसी स्थिति नहीं रह गई.) 

हम भी काफी देर तक वहां रहे. जानकी मंदिर परिसर से सटकर बने विवाह मंडप की सैर हमने बाद के वर्षों में की थी, उससे पहले 'हीरा बाबू' के यहां गए, जो उस 'स्वदेशी-बिलेंती' प्रकरण की नॉस्टैल्जिया थे. वहां जाकर, उनसे मिलकर हमें भी अच्छा लगा था. हम भाइयों के लिए पहली जनकपुर यात्रा, अन्य पर्यटन स्थलों की तरह नहीं थी. वहां के बाजारों से कुछ खरीदने की चाह नहीं थी, अलबत्ता भारतीय रुपये के मुकाबले नेपाली मुद्रा, जिसमें 60 पैसे का अंतर होता है, हमें दुकानों में बस अपनी राजकीय मुद्रा के 'बड़े' होने का भान होने का आनंद अच्छा लगता था. 10 रुपये देकर नेपाली राजा की चित्रों वाले 16 रुपए हाथ में आते ही, नेपाल के अभिभावक देश से आने का भाव हमें गौरव से भर देता था. मन में यह निश्चिंतता भी आ गई थी कि सीता के पास रहने वाले आज उनके मायके तक भी पहुंच ही गए..., अब जनकपुर दूर नहीं रह गया था.

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2021

महादेव के घर में पैदल-पैदल बोल बम....

मैदान के मुकाबले पहाड़ हमेशा से लोगों को लुभाते रहे हैं. पहाड़ों की ऊंचाई, इनका उबड़-खाबड़पन और उससे कहीं अधिक संभवतः पृथ्वी पर मैदान से ज्यादा प्राचीन होने की वजह से इंसान के भीतर पहाड़ को छूने की ललक रही है. ऐसे पहाड़ के बीच अगर धर्म का स्थान ढूंढ लिया जाए, तो आस्थावान लोगों के लिए वह जगह और भी पवित्र तथा पर्यटन के माकूल जगह बन जाती है. ऐसे ही जगहों में से एक है देवघर. महज 2 दशक पहले बिहार से अलग होकर बने झारखंड राज्य का बाबाधाम, जिसका आधिकारिक नाम देवघर है, देश में भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक बाबा वैद्यनाथ का घर है. जैसा कि विदित है कि यह महादेव के चुनिंदा 12 स्थलों में से एक है, इसलिए भारत के पूर्वी इलाके में इसका महत्व भी विशिष्ट हो जाता है. खास कर यदि हम बिहार और झारखंड की बात करें, तो यह लाखों शिवभक्तों की आस्था का एकमात्र केंद्र है.

महादेव मंदिर देवघर. फोटो साभार- deoghar.nic.in


अलबत्ता देवघर में स्थित महादेव को बाबा गरीबनाथ भी कहा जाता है. देश में मौजूद अन्य 11 ज्योतिर्लिंगों के मुकाबले देखें तो यह गुजरात के सोमनाथ की तरह विदेशी आक्रांता की वजह से चर्चित नहीं है. हिमालय की गोद में स्थित केदारनाथ की तरह बर्फ की चोटियों से ढंका होने के कारण अत्यंत खास भी नहीं हो जाता है. दावा तो नहीं कर सकता, लेकिन हर साल लाखों की संख्या में आने वाले शिवभक्त, बाबा वैद्यनाथ को 'आम जनमानस का सबसे खास देव' जरूर बना चुके हैं. सावन के महीने में यहां जितने भक्त आते हैं, किसी एक समय में महादेव के किसी रूप को देखने शायद ही इतनी तादाद में भक्त जमा होते हों! सावन के अलावा भी यहां आने वालों की संख्या आपको चकित कर सकती है. कुछ ऐसा ही समय वर्ष 1990 का भी था, जब हम लोग, यानी हमारा पूरा परिवार और पूरा ननिहाल, देवघर में एक खास आयोजन के लिए जुटे थे.

देवघर जाना बहुत ही आसान है. उन लोगों के लिए भी, जो यहां से लगभग 100 किलोमीटर दूर सुल्तानगंज में उत्तर वाहिनी गंगा से जल लेकर पैदल ही बाबा वैद्यनाथ पर चढ़ाने आते हैं. और उनके लिए भी जो ट्रेन, बस, हवाई जहाज या फिर निजी वाहन से आना चाहते हैं. देश के मानचित्र के आधार पर गौर करें तो यह दिल्ली-कोलकाता मुख्य रेलमार्ग पर जसीडीह स्टेशन के करीब है. बिहार, बंगाल और झारखंड के निकटवर्ती हवाई अड्डे से भी इसकी दूरी 300 किलोमीटर के आसपास ही है. वर्ष 1990 में हम रेलमार्ग से देवघर पहुंचे थे. मुजफ्फरपुर जंक्शन से शाम के समय रवाना होने वाली ट्रेन छपरा-टाटा, जो उस समय मुजफ्फरपुर से ही चला करती थी, उसने हम लोगों को रातभर के सफर के बाद देवघर पहुंचा दिया था. नितांत पारिवारिक आयोजन के लिए यूं तो गांव सबसे मुफीद होता है, लेकिन बिहार-झारखंड में रहने वाले लोग कई बार देवताओं को सामाजिक आचार-व्यवहार का सहभागी बना लेते हैं, सन् 90 की यह यात्रा ऐसे ही एक पारिवारिक कार्यक्रम की थी.

यूं तो हम लोग पारिवारिक कार्यक्रम के लिए ही आए थे, लेकिन देवघर पहली बार पहुंचे थे. बाबाधाम पहुंचकर लोग आज भी होटल की जगह, धर्मशाला को तवज्जो देते हैं. कारण कोई खास नहीं, बल्कि मंदिर के इर्द-गिर्द रहने की लालसा होती है, ताकि ज्यादा से ज्यादा समय महादेव के साथ गुजारा जा सके. कालक्रमेण, होटलों को महत्व देने का चलन बढ़ा जरूर है, लेकिन आज भी बाबाधाम की धर्मशालाओं का जोड़ नहीं! ऐसी ही किसी धर्मशाला में हमारा डेरा जमा. आयोजन का समय नियत था, इंतजाम पूरे थे, बस आनंद की शुरुआत होनी थी. देवघर में बनारस की तरह गलियां नहीं हैं, लेकिन प्रातः स्नान के बाद बाबा का दर्शन करने के लिए जो रास्ता है, वह आम धार्मिक स्थलों की तरह संकरा ही है. शिवगंगा, वह बड़ा तालाब जहां सुबह-सवेरे स्नान के बाद लोग बाबा का दर्शन करने पहुंचते हैं, से बाबा मंदिर तक का रास्ता फूल, बेलपत्र, पेड़े व अणाची दाने की खुशबुओं को महसूस करते हुए आप पूरा करते हैं. रास्ते में कई-कई कंठों से उच्चारित हो रही बोल-बम की ध्वनि आपको इस धर्मपारायण देश का महत्व बताती चलती है. सावन के महीने से इतर, मंदिर पहुंचकर दर्शन करना यहां कठिन नहीं है. इसलिए घंटेभर के भीतर आपका दर्शन-पूजन संबंधी नित्य-कृत्य पूरा हो जाता है. इसके बाद शुरू होती है देवघर की यात्रा.

यूं तो बाबाधाम में पर्यटन की दृष्टि से शायद ही कोई आता हो, यहां तो बाबा का दर्शन ही एकमात्र उद्देश्य होता है, लेकिन ऐसा नहीं है कि पर्यटक नहीं आते. देवघर में कई स्थान हैं, जो वस्तुतः धार्मिक ही हैं, लेकिन तपोवन या नौलखा मंदिर जैसे स्थानों पर दर्शनार्थ जाने वाले पर्यटकों की संख्या में कम ही नजर आते हैं. हम भी बाबा मंदिर तक ही दर्शनार्थी रहे, तपोवन या अन्य स्थलों की खूबसूरती के आगे 'टूरिस्ट' बन ही गए थे. वर्षों पहले 9 लाख रुपए में बने नौलखा मंदिर की शांति और रमणीयता हो या तपोवन पहाड़ की गुफाओं-कंदराओं का सौंदर्य, आपको बरबस ही अपनी ओर खींचता है. तपोवन की गुफाओं के आगे बैठे वानरों का दल, बच्चों के लिए रोमांचकारी रहता है. इन्हीं स्थलों को हम सभी पैदल-पैदल निहारते जा रहे थे. बाबा मंदिर से तपोवन पहाड़ की दूरी पैदल नहीं पूरी की जा सकती, लेकिन पहाड़ पर पहुंच जाने के बाद इसे पैरों से नापना सुख देता है.

नौलखा मंदिर, बाबाधाम. फोटो साभार- deoghar.nic.in


देवघर में पैदल-पैदल ही घूमने के पीछे एक और बड़ा कारण था, जो रोचक है. दरअसल, मम्मी और बाबूजी को घूमने के दौरान किसी भी तरह की खरीदारी से सख्त ऐतराज रहा है, रहता है. हम तीन भाई, इस विचार से सहमत ही हों, यह कतई जरूरी नहीं, लेकिन उस वक्त और कोई चारा भी नहीं था. यूं भी मंदिर के आसपास के अन्य सभी स्थल बहुत दूर-दूर पर नहीं हैं, इसलिए पैदल घूमने में ऐतराज भी नहीं था. लेकिन इसमें खास बात थी मम्मी की वह सलाह, जिसमें उन्होंने कहा था कि 'पहाड़ पर घूमोगे तो भूख ज्यादा लगेगी, कई-कई बार खा सकते हो'. खानें में भी क्या, चूड़ा-दही और पेड़े! अब बालसुलभ लालच कह लें या मम्मी की सलाह, बार-बार पेड़े खाने की चाहत में हम पूरे बाबाधाम को पैदल नापने को तैयार थे. इसके पीछे का वैज्ञानिक कारण बाद में समझ आया कि मैदानी इलाकों में रहने वाले पहाड़ी क्षेत्र की  भौगौलिक बनावट के कारण पैदल चलने में जल्दी थक जाते हैं. कुछ हद तक पानी की स्वच्छता का भी मामला आता है, जो सुस्वादु भोजन को जल्दी पचाने में मददगार होता है.

1990 के बाद भी हम कई बार देवघर गए हैं. कहीं बेहतर साधन और संसाधनों के साथ. आज जबकि उस स्थान पर यात्रा और पर्यटन के बेहतरीन संसाधन मौजूद हैं, 30 साल पुरानी यात्रा को भुलाना नामुमकिन है. यहां तक कि उस पारिवारिक आयोजन से बढ़कर हम लोगों को पैदल-भ्रमण ज्यादा नॉस्टैल्जिक लगता है. आज भी कोशिश यही रहती है कि अगर देवघर जाने का मौका मिले तो मंदिर के आसपास ही रहा जाए. फूल, बेलपत्र, पेड़े और अणाची दाने की खुशबू के करीब रहें....और बाद के वर्षों में तो वहां पराठे भी मिलने लगे हैं. यहां तक कि देवघर के करीब ही स्थित बासुकीनाथ में अब रोप-वे भी है, जहां से पहाड़ का विहंगवालोकन संभव है. लेकिन जो तस्वीर एक बार घर कर गई है, उसे फ्रेम से निकालने को कभी जी ही नहीं चाहता!

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2021

खेतों में घूमते मोर और इलाहाबाद की यात्रा

प्रयागराज के आसमान से ऐसी दिखती है गंगा. (साभार-https://prayagraj.nic.in/)

यह साल 1988 की बात होगी, जब हम तीन भाई अपनी दादी की आकांक्षा पर बाबूजी और मम्मी के साथ इलाहाबाद की यात्रा पर निकले थे. सीतामढ़ी, जहां बाबूजी एक कॉलेज में शिक्षक थे, वहां से मुजफ्फरपुर और फिर सोनपुर तक की यात्रा रोमांचक रही. सीतामढ़ी से बस में नितांत आगे बैठकर हाजीपुर और फिर सोनपुर तक की यात्रा मजेदार थी. खासकर मुजफ्फरपुर से सोनपुर तक की यात्रा हम पुरानी जयंतीजनता और आज की वैशाली एक्सप्रेस से तय करने वाले थे. जयंतीजनता पहली ऐसी ट्रेन थी, जिसके कोच में मिथिला पेंटिंग या कहें मधुबनी पेंटिंग्स लगाए गए थे. बिहार से पलायन का इतिहास पुराना है, लेकिन उस समय यह कलकत्ता तक ज्यादा केंद्रित था. दिल्ली जाने वालों के लिए जयंतीजनता पॉपुलर थी. इसी ट्रेन से हम लोगों को मुजफ्फरपुर से सोनपुर तक जाना था, जहां से आगे की ट्रेन. एक और खास बात यह कि सीतामढ़ी से दरभंगा तक का सफर छोटी लाइन की ट्रेनों यानी मीटर गेज के जरिये तय किया जाता था, जबकि उस दिन का सफर बड़ी लाइन यानी ब्रॉड गेज पर होना था, 10 साल का मैं और क्रमशः 8 व 6 साल के दोनों छोटे भाई, ट्रेन में खिड़की साइड की सीट के लिए अक्सर झड़प किया करते थे. जाहिर सी बात थी कि जयंतीजनता में भी इसकी चाह थी ही, लेकिन उससे ज्यादा बड़ी लाइन की ट्रेन होगी कैसी, उस दिन यह बड़ा आकर्षण था. ऐसे में जब बड़ी लाइन की यह बड़ी सी ट्रेन धड़धड़ाती हुई मुजफ्फपुर स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर पहुंची, तो शरीर के रोयें एकबारगी नाच उठे.

हमारा उत्साह उछाह मार रहा था, लेकिन उसे ट्रेन की भीड़ ने दबाकर रख दिया. जैसा याद है, खीझ गए थे हम लोग. बाबूजी और मम्मी या दादी नहीं, उन्हें इस भीड़ का शायद अनुमान रहा होगा. गांव की यात्राओं के दौरान बस या ट्रेन में भीड़ हमारे लिए नई नहीं थी. लोगों के बीच ठुंस-ठुंसकर जान में हम तीनों प्रवीणता की ओर बढ़ रहे ही थे, लेकिन जयंतीजनता जैसी ट्रेन में भी इस कदर भीड़ होगी, यह किशोरवय से पहले की आकांक्षाओं पर कुठाराघात था. खैर, ट्रेन आई, बाबूजी ने राह दिखाई और हम लोग उसमें जद्दोजहद करते हुए सवार हो ही गए. बीच में संबल देने वाली बातें दादी की थीं, जब वह कहती थीं कि तीर्थयात्रा पर कष्ट सहयात्री की भांति चलता है. इसके साथ ही आनंद के क्षण तलाश करने चाहिए. ट्रेन में चढ़ने के बाद और यात्रियों के बीच जगह बनाने की या मात्र खड़े होने भर की रस्साकशी के बीच, दादी का ये सूत्र, सचमुच काम का लगा. बमुश्किल 5 मिनट के ठहराव के बाद जयंतीजनता के ड्राइवर ने ट्रेन को हरकत दी, और लोहे की सवारी लोहे पर दौड़ पड़ी. 

प्लेटफॉर्म छूटते-छूटते ट्रेन रफ्तार पकड़ने लगी थी. हम उस महान ट्रेन को हवा से बात करता हुआ देखना चाहते थे, ट्रेन हमारी आशाओं को पंख देने लगी थी. धड़-धड़, खड़-खड़.... हिलते-डुलते यात्रियों के बीच भागती ट्रेन जितना आनंद दे रही थी, वह शायद आज रनवे छोड़ता हवाई जहाज भी नहीं देता और न ही राजधानी एक्सप्रेस जैसी वीआईपी ट्रेन ही वह अनुभव करा पाती है. जाड़े का मौसम नहीं था, लेकिन सरपट दौड़ती ट्रेन की खिड़कियों से आती हवा इतनी तेज लग रही थी कि गर धूप न होती, तो हम चादर ओढ़ लेते. अनुभव अद्भुत था. हमारा सफर छोटा था, महज घंटेभर का भी नहीं, लेकिन अनुभूति अपार मिल रही थी. हम दिल्ली भले नहीं जाना चाहते थे, लेकिन सुपरफास्ट ट्रेन में बैठे रहना चाहते थे. हम जयंतीजनता की वह जनता थे, जो उसके साथ उसके सफर को जी लेना चाहते थे, लेकिन..., हमारे सोचते-सोचते गंगा आ गई. वही गंगा नदी! 

हाजीपुर और सोनपुर को यह गंगा ही अलग कर देती है और इसे जोड़ता है वह विशाल पुल, जिस पर से हम गुजरने वाले थे. अब तक कमला, गंडक और लखनदेई नदी की ऊपर से गुजरने का अनुभव रखने वाले हमारे लिए गंगा का यह पुल अतुलनीय था. ट्रेन की रफ्तार पुल पर आकर आंशिक रूप से कम हो गई थी, जो सुकून की बात थी. लेकिन तब भी वह इतनी कम नहीं थी कि हमें आंखभर पुल को देखने देती. हम लोहे के बड़े-बड़े खंभों को भरपूर देखना चाहते थे, उसके बीच से झांकती गंगा को अनुभव कर लेना चाहते थे, लेकिन ट्रेन हमें सोनपुर पहुंचाने पर आमादा थी, उसे और लोगों की साध भी पूरी करनी थी. पुल पर बिछी पटरियों की गड़गड़ाहट का जो आनंद था, अहा.......क्या कहना. हम सोनपुर पहुंचे गए, जो हमारा पहला गंतव्य था. यहां इलाहाबाद या प्रयाग जाने के लिए हमें कुछ देर प्रतीक्षा करनी थी, जहां फिर छोटी लाइन की ट्रेन ही थी, लेकिन अंतर यह कि वह पैसेंजर नहीं, फास्ट पैसेंजर थी.

सोनपुर स्टेशन, कभी एशिया में सबसे लंबे प्लेटफॉर्म के लिए जाना जाता था. इसकी वजह इस स्थान की ऐतिहासिकता है. यहां सैकड़ों वर्षों से सबसे बड़ा पशु मेला लगता रहा, जाहिर है मेले में दूर-दूर से आने वालों की तादाद को देखते हुए हम लोगों ने अंदाजा लगा लिया कि यही वजह होगी कि इस स्टेशन का प्लेटफॉर्म सबसे लंबा है. जयंतीजनता सुपरफास्ट एक्सप्रेस से उतरने के बाद हमें पूरा प्लेटफॉर्म घूम आने की अनुमति नहीं थी, लेकिन बैठने और चादर बिछाने की जगह ढूंढने के बीच हमारी आंखों ने वर्चुअल तरीके से ही सही, पूरी प्लेटफॉर्म को नाप ही लिया. कुछ देर के बाद फिर हम तीनों को आंशिक ही सही, प्लेटफॉर्म पर घूमने की स्वतंत्रता मिल भी गई. इसकी एक वजह यह भी थी कि सोनपुर आने वाले ट्रेनों की तादाद उस वक्त उतनी नहीं थी, जैसी आज है. इसलिए एक बड़ी ट्रेन के जाने के घंटों बाद तक प्लेटफॉर्म खाली ही पड़ा रहता था. यूं भी मेले के अलावा उस स्टेशन पर तब भीड़ भी कम ही हुआ करती थी, इसलिए खाली स्थान का अभाव नहीं था. हम दोपहर से पहले ही मुजफ्फरपुर से आ पहुंचे थे, और प्रयाग जाने वाली हमारी फास्ट पैसेंजर शाम में रवाना होने वाली थी. इसलिए बीच का 5-6 घंटा पर्याप्त था, उस लंबे प्लेटफॉर्म को देखने के लिए.

प्रयागराज से लौटते वक्त हम जिस दिन काशी पहुंचे, उस दिन सुबह जबर्दस्त भूकंप भी आया था. तस्वीर 21वीं सदी की है.

सोनपुर स्टेशन का एक और अनुभव यादगार है. दिन का खाना बनाने और खाने का. हम ब्राह्मण परिवार से हैं, जो धार्मिक रूप से संवेदनशील है. बाहर खाना, इसलिए वर्जित ही था. आज भी कमोबेश है ही, मगर अब चूंकि हम लोग एकांगी यात्रा करने लगे हैं, इसलिए वर्जनाओं के साथ ब्राह्मण बने रहना सीख लिया है. मगर, आज से करीबन तीन दशक पहले ऐसा सोचना भी वर्जित था. बिस्किट या चॉकलेट की बात और थी, पका हुआ भोजन तो न के बराबर ही होता था. सफर के दौरान तो.....ओ माई गॉड! तो किस्सा कुछ यूं है कि प्रयाग जाने से पहले मम्मी ने सबको घर का पका और हेल्दी खाना खिलाने का ही संकल्प ले लिया था, जिसके बरक्स उन्होंने सफर के सामान में स्टोव, मिट्टी का तेल और खाना बनाने के सारे सामान संग कर लिए थे. आत्मनिर्भर होने का पाठ हम तीनों को बचपन से ही पढ़ाया गया था, इसलिए सफर के दौरान सामान उठाना, हमारे आनंद में बाधक कभी नहीं बनता था. लेकिन उस दिन सोनपुर स्टेशन पर जब ये पता चला कि एक तो स्टेशन पर बनने वाला खाना हम खा नहीं सकते और ऊपर से हम जो सामान उठा रहे हैं, उसमें ऐसी चीजें भी लाई गईं हैं, तो तीनों ही खीझ उठे थे. चूंकि विरोध की परिणति हमें पता थी, सो घुटकर रह गए.

मम्मी ने बैग से स्टोव निकाली, उसमें मिट्टी का तेल डाला गया और फिर एक-एक कर सारे बर्तन बाहर आते गए. दादी के होने की वजह से नितांत सामान्य और सरसतम भोजन ही बना, जो घंटों के भूखे हम सभी ने छककर खाया. इसके बाद शुरू हुआ, प्रयागराज फास्ट पैसेंजर के खुलने यानी चलने का इंतजार. एक बात और, प्रयागराज फास्ट पैसेंजर शाम में चलकर यात्रियों को अहले सुबह इलाहाबाद छोड़ती थी. इलाहाबाद से आने वाली इस ट्रेन की रैक भी सुबह ही पहुंचती थी, लिहाजा ट्रेन को धो-पोछकर दोपहर में ही प्लेटफॉर्म पर खड़ा कर दिया जाता था. जिन यात्रियों को यह ट्रेन पकड़नी होती थी, वो घंटों पहले आते और अपनी-अपनी सीटें लेकर ट्रेन की रवानगी का इंतजार करते. हम भी ऐसे ही यात्रियों की भीड़ का हिस्सा बन गए थे. अब सिर्फ मम्मी और दादी ही ट्रेन के अंदर थीं, हम तीनों भाई और बाबूजी प्लेटफॉर्म पर. बाबूजी को स्वाभाविक रूप से दूर तक टहलने की आजादी थी, हमें अपनी बोगी की खिड़कियों के आगे और मम्मी की आंखों के सामने ही रहना था.

आखिरकार, वह क्षण आया जब इलाहाबाद ले जाने वाली उस फास्ट पैसेंजर ने सीटी दी और हम बिहार छोड़ उत्तर प्रदेश की इस धार्मिक नगरी की यात्रा पर निकल पड़े. सीतामढ़ी से निकलने से पहले और उससे भी पहले दादी हमें प्रयाग कुंभ की कहानियां सुनाया करती थीं. कुंभ के दौरान एक चाची के बिछड़ने और बाबूजी द्वारा उनकी तलाश करने की कहानी आज भी जहन में ताजा है. इलाहाबाद, हमारे ननिहाल के कुछ पितृ-पुरुषों का कर्म क्षेत्र रहा है, हमें वह कहानियां भी याद थीं. नेहरू जी के आनंद भवन के बारे में तब उतनी जानकारी नहीं थी, लेकिन इलाहाबाद बहुत बड़ा शहर है, यह हमें पता था. वहां कुंभ लगता है, 12 साल में एक बार बड़ा मेला होता है, हर साल माघ के महीने में भी लोग वहां जाते हैं, प्रयाग-वास भी किया जाता है, ये ब कहानियां दादी या मम्मी ने बताया हुआ था. इन सभी संस्मरणों के साथ हम इलाहाबाद जा रहे थे. यह ट्रेन चूंकि जयंतीजनता नहीं थी, इसकी पटरियों की माप से हम रूबरू थे ही, लेकिन छोटे स्टेशनों और हॉल्ट पर नहीं रुकती थी, इसलिए यही इसकी खासियत थी. बीच में छोटे स्टेशन आते और हमारी आंखों के सामने से निकल जाते, तो दिल को बड़ा गजब का फील होता था. लगता था कि अपनी रूट के 'शीशो' (दरभंगा से सीतामढ़ी के बीच पड़ने वाला हॉल्ट) को हम चिढ़ाते हुए निकल लिए. शाम को चली ट्रेन में अंधेरा घिरते ही खाने-पीने का प्रबंध शुरू हो गया था. इस ट्रेन में यात्री ठुंसे हुए नहीं थे, सो बैठने-लेटने की थोड़ी स्वतंत्रता थी. फास्ट पैसेंजर होने की वजह से इसकी रफ्तार अच्छी थी, इसलिए गेट के आसपास जाने की खतरनाक तरीके से मनाही थी. हम इतने से ही खुश थे कि चलो सबको खिड़की तो मिली. बहरहाल, खाना शुरू हुआ, जो अगले 15-20 मिनट के भीतर निपट गया. यह रिजर्वेशन वाली बोगी नहीं थी, लेकिन चूंकि जगह भरपूर थी, सो हम सभी सोने या बैठते हुए ही सोने की प्रक्रिया में जुट गए.

अहले सुबह जब नींद खुली तो यूपी आ गया था, हम अपने गंतव्य के करीब आ चुके थे, लेकिन अभी कुछ देर और ट्रेन में ही रहना था. इलाहाबाद से पहले संभवतः प्रतापगढ़ के आसपास से हमारी ट्रेन गुजर रही थी. सामने दूर-दूर तक पसरे खेत सामान्य ही थे, लेकिन उसमें खास था मोर का होना. एक-दो नहीं, बल्कि कई किलोमीटर तक खेतों और पेड़ों के आसपास मोर के झुंड देखना पहला अनुभव ही था. बड़ा मनोहारी..., खासकर जब वह ट्रेन के नजदीक के पेड़ों के पास दिखते तो खिड़कियों में से गर्दन निकालने की कसक बनकर रह जाती थी. कुछ और जीव-जंतु भी थे, लेकिन मोरों का वहां होना, हमारी यात्रा को मनोरम बना रहा था. खासकर इलाहाबाद पहुंचने से पहले ऐसे दृश्यों से लग रहा था कि सचमुच वह शहर कितना सुंदर होगा, जिसके बहुत दूर भी मोर रहते हैं. आज के दिनों से इन अनुभवों की तुलना करें, तो यकीनन न तो हम ऐसे पैसेंजर ट्रेनों की यात्रा कर पा रहे हैं और न ही ऐसे खेत ही दिखते जहां मोर खुलेआम घूम रहे हों.

यह झारखंड में गुमला जिले की सड़क है, जिससे होकर आप नेतरहाट जा सकते हैं. तस्वीर 2010 की.


इलाहाबाद, अब प्रयागराज हो चुका है, 1988 को गुजरे 30 साल से ज्यादा हो चुके हैं. न सीतामढ़ी से मुजफ्फरपुर के बीच वैसी सड़कें रहीं और न ही अब सोनपुर से इलाहाबाद के बीच छोटी लाइन (मीटर गेज) की पटरियों पर वह फास्ट पैसेंजर दौड़ा करती है. अब हमारे बीच दादी भी नहीं रहीं और न ही स्टोव लेकर ट्रेन में चढ़ने की स्वतंत्रता या कह लें कि स्वच्छंदता ही बची है. प्रयागराज जाने या पहुंचने के साधन-संसाधन भी बदल चुके हैं. इलाहाबाद के बाद के वर्षों में मेरा परिवार भी अब विस्तार पा चुका है. हमने एक साथ कई स्थानों की यात्राएं भी की हैं, लेकिन हर यात्रा में जयंतीजनता की याद, सोनपुर का प्लेटफॉर्म और इलाहाबाद पहुंचने से पहले मोर और हिरणों की यादें अब भी कम से कम हम तीन भाइयों के बीच साझा जरूर होती रहती हैं.

मंगलवार, 2 अगस्त 2011

मैंने चुनाव लड़ा

दोस्तो, कुछ दिन पहले या कहें माचॆ में मैंने पंचायत चुनाव लड़ने की सोची। मूड बन चुका था, सो नौकरी से इस्तीफा देने का मन बना लिया। मगर दोस्तों ने कहा, छुट्टी ले लीजिए। बाद में कह दीजिएगा, बीमार पड़ गया था। मैं उधेड़बुन में पड़ गया। संपादक स्तर के एक या कहें कई मित्रों और सहयोगियों से बात की। उनकी भी राय यही थी कि छुट्टी लेकर ही लोकतंत्र के पहले पायदान पर उतरा जाए।
बहरहाल, मैंने छुट्टी की अर्जी दे दी। संपादक से सहमति भी ले ली। दोस्तों ने मेरा विदाई समारोह आयोजित किया, धमाकेदार पार्टी दी। एक ने तो हद कर दी। जैसे मैं फिर कभी मिलूंगा ही नहीं, इस भावना से गिफ्ट भी दे दिया। पार्टी में पूरा दफ्तर आया था। राजीव ( मेरे डेस्क का सहयोगी और रांची आने के बाद मिला मित्र) ने पार्टी अरेंज कर कमाल कर दिया।
मैं गांव के लिए निकल चुका था। गांव में मेरे आने की आहट मेरे संबंधियों से ज्यादा चुनाव में मेरी दिलचस्पी में ॥दिलचस्पी.. लेने वालों को लग चुकी थी। मानो शतरंज की बिसात पर नए मोहरे की आहट हो। लोग-बाग मुझसे मिलते कम थे, सवाल ज्यादा पूछते थे। यहां तक कि बड़े-बुजुर्ग भी मुझे देखते ही सवाल दाग उठते थे, नौकरी छोड़ के चुनाव लड़ोगे? उनके सवाल मुझे बेधते कम, अटपटे ज्यादा लगते, क्योंकि यह समझना समझ से परे था कि वे नौकरी छोड़ने पर सवाल कर रहे हैं या उन्हें मेरे आने पर ऐतराज है। महज हफ्ते भर में मैं ऐसे सवालों का जवाब देने का आदी हो चला था। मैं कहता, पत्रकार हूं, नौकरी तो रखी हुई है मेरे लिए। वे ताज्जुब में पड़ जाते। जब कुछ न सूझता तो मेरे पिता या मेरे भाइयों से जवाब तलाशने की कोशिश करते। उन्हें संतुष्टिपूर्ण जवाब मिलता, अभी छुट्टी लेकर आया है, हार कर फिर नौकरी करने लगेगा। मुझे ऐसे सवालों के कई मायनों का शुरुआत में अंदाज नहीं था, मगर कुछ ही दिनों में पता चल गया कि इसके मायने क्या-क्या लगाए जा सकते हैं। किसी तरह मैंने पीछा छुड़ाया और चुनावी मुहिम की शुरुआत की।
प्रचार अभियान पूरे दो माह चला। प्रकट रूप में और अ-प्रकट रूप में। गुप-चुप तौर पर और टोलों और सरकारी दफ्तरों में चिंघाड़-चिंघाड़कर। मैं कुछ भी करता, वो लोगों के लिए सूचना बनती। लोग मुझे हल्के में नहीं ले रहे थे। कुछ को डर था ये गांव आया है, जरूर कुछ न कुछ करेगा। कुछ पुराने तजुर्बेकार लोगों की राय सामने आती थी, इसे मौका दिया जाए, कहीं कुछ कर गया तो। मेरा कोई विरोधी तो था नहीं, सभी अपने थे। यह अलग बात थी कि चुनाव के दौरान कोई साथ चलने का ..खतरा.. नहीं उठाता था। डर था, कहीं उसका या उसके किसी का या फिर किसी और का वोट बैंक न बिगड़ जाए। मेरे साथ मेरे दो भाई थे। एक सगा, दूसरा चचेरा। सगा भाई घर पर बैठकर चुनाव मैनेजमेंट सेक्शन संभालता था। चचेरा भाई साथ चलकर और कभी-कभार अकेले में भी लॉबिंग किया करता था। बीच-बीच में रांची और कई अन्य जगहों से फोन आते थे, मैं शुरुआती रुझानों से उत्साहित होकर उन्हें बताता था, भई जीत तय है।

अगली कड़ी कल

मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

इस वल्डॆ कप में आस्ट्रेलिया मार खाएगा क्या

लगातार दो अभ्यास मैचों में हार, कई नामचीन खिलाड़ियों की कमी, शायद कप्तान रिकी पोंटिंग के आत्मविश्वास में कमी और भी न जाने क्या-क्या। इस बार आस्ट्रेलियाई टीम की स्थिति ऐसी ही दिख रही है। इसलिए मन में सवाल पैदा हो रहे हैं
क्या यह टीम वल्डॆ कप के लीग मैचों से आगे बढ़ पाएगी?
क्या इस बार कोई अदना सी टीम इस भारी-भरकम टीम को मुंह की खाने पर विवश कर देगी?
क्या जीत की हैट्रिक बनाने वाली टीम का इस बार के वल्डॆ कप में ..चौथा.. हो जाएगा?
क्या रिकी पोंटिंग का जलवा इस बार भी दुनिया देखेगी?
क्या सचमुच में आस्ट्रेलियाई दबदबे का यह आखिरी साल है?
क्या आस्ट्रेलियाई धुरधंरों में वह दमखम नहीं रह गया है?
क्या कोई नई टीम अब विश्व क्रिकेट में अब अगुआ बनेगी?
क्या बिना बहुमुखी प्रतिभा के खिलाड़ियों संग विश्व कप नहीं जीता जा सकता?

मैंने इतने सरे सवाल उठाये हैं, देखें इसका जवाब कौन देता है।

बुधवार, 14 जुलाई 2010

ये है रांची


झारखंड आए अभी एक हफ्ते ही हुए और अपन ने चार दिनों की बंदी देख ली है. लोग कह रहे हैं अभी तो कुछ नहीं जब फलाना पार्टी बंद कराएगी न, तब देखिएगा..... पूरा रांचिए सुन्न हो जाता है. अब हम और हमारे साथ आए कुछ और लोग बेसब्री से उस बंदी का ही इंतजार कर रहे हैं. खैर जाने दीजिए इन चार दिनों की बंदी को, अपन झारखंड की राजधानी के मजे उड़ा रहे हैं. दफ्तर काफी ऊंचाई पर है, डेढ़ सौ सीढ़ियां चढ़नी-उतरनी पड़ती हैं, फिर भी पान-गुटखा-सिगरेट आदि के शौकीन रोज अपने बदन को कसरती बना रहे हैं. अब हमारे लिए तो कोई अलग से लिफ्ट बना नहीं देगा, सो हमें भी भाई लोगों का साथ देना ही पड़ता है.
रांची राजधानी बनने की किशोरावस्था में प्रवेश कर रही है. ऐसी अवस्था में मां-बाप से बच्चे नहीं संभलते, तो यहां के लोग राजधानी को कैसे संभालेंगे. इसलिए शहर की हर गली, नुक्कड़, कॉलोनी आदि को लोग फटकारते रहते हैं. सरेराह गंदगी देखते हुए भी सोचते हैं, बच्चा है रांची, उठाना सीख जाएगा. आड़े-तिरछे वाहन चलाकर सोचते हैं आया (ट्रैफिक पुलिस) कहां गई. मजे की बात ये है कि यहां बनने वाली हर सरकार चड्डी पहनना ( सरकार चलाना) सीखती ही है, कि उसे शू....शू.... आ जाता है. चड्डी गीली हो जाती है और रांची नंगी. अब भला ऐसे में रांची कैसे संभले.
इतनी ही बातों से रांची की पूरी जानकारी तो किसी को हो नहीं जाएगी, सो जब तक अपन इसका और भूगोल-नागरिक और इतिहास खंगालते हैं, आप इतने से ही काम चलाइए। हम आते हैं तो और जानकारी देंगे। अभी सिर्फ फर्जी फिकेशन ही करना पड़ेगा. अब रांची इतनी भी छोटी नहीं रह गई है कि आप किसी को बेवकूफ बना दें. आखिर महेंद्र सिंह धौनी का शहर है भई.... (भगवान बिरसा मुंडा सिर्फ झारखण्ड के होकर रह गए हैं) टीवी वाले भले कह लें कि छोटे शहर का छोरा टीम इंडिया का कप्तान बन गया..... लेकिन हम रांची में रहकर इसे छोटा शहर थोड़े ही न कहेंगे... सो अगले कुछ दिनों के लिए.... जोहार.... जय झारखंड