मरदे बूझला न, खाई-पीए के बात करैत हतियो. तनि ध्यान न द एहि बगल. हम गेल रहली ह ट्रेड फेयर में. उहां बहूते चीज सब बिकाइत रहय. मगर हमरा आ हमर एगो साथी, उहे श्याम सुंदर (न चिन्हलहू कि ?), के लिट्टी-चोखा पर ध्यान रहे. तकइत-तकइत बिहार के पंडाल (पवेलियन) में आखीर घुसिए गेली हम दुनू गोरे. बरा नीमन बनयले हय बिहार के पंडाल के परगति मैदान में. सबे कुछो बिहारे जैसन देखाइत हय.
खैर दोसरा बात सब अभी छोड़ऽ. बिहार के पंडाल में घूस के हम त पहिले तकली आपन मिथिला के. श्याम त मरदे रहल मगही. ऊ हमरा के टोंट कसलक, अरे झाजी इहां बिहाड़ में कहां से मिथिला को ढूंढ़ रहे हैं आप. चलिए घूमते-वूमते हैं. जो जहां दिखेगा देख लेंगे. मगर हो मरदे कथि कहियो, हमरा तऽ ध्यान रहय लिट्टी के. से तकइत-तकइत मिलिए गेल लिट्टी-चोखा के स्टाल. अब जे हमर मन गदगद हो गेल एकरा बारे में जान के कि करबा तू. रहय दा. दुनू गोरे झट्ट दनी स्टाल के दोकानदार के दू पलेट लिट्टी के आडॆर कर दिए. दोकानदारो बरा समझदार रहय. झट दनी दे देलक आ हम दुनू गोरे लग गेली लिट्टी-चोखा के सधावे में. कि कहियो हो मरदे. इह ऐसन महीन सतुआ पीसले रहय कि दुनू गाल के बीच लिट्टिया त गल के हलुआ हो गइल. आ, चटनी, मरदे कि पुछैछा. आलू, टमाटर आ बैगन के तऽ समझ लऽ जे पूड़ा मिसमिसा देले रहलैयऽ. एहि से झूठे न न कहैत हतियो, सचे में मन गदगदा गइल. ओकरा बाद कुछो खाइ के त मन नहिए कयलक मगर हमरा तऽ घूम के फेनू मेरठे आबे के रहय. आ मेरठ में हमर जे बास हथुन न से बड़ा जीहगर हैं. नीमन चीज खाय में जेना मरदे तोरा मन लगैत हौ, ओनाहिते हुनकरो के. से हम आधा किलो गया वला तिलकुटवो ले लिए. ओकरो स्वाद बरा बेजोर हय. सीधे गया पहुंचा देगा जीभ के भीतर जाइते-जाइते. लिट्टी-चोखा खा के हमरा भइल कि तोरो सब के बता दीं ताकि जे सब परगति मैदान में नहि गए हैं ऊ सब जल्दी चले जाएं. कसम से, मज्जा आ जाएगा.
हं ई जान लीजिए कि ई लीखि के हम आईआईटीएफ के परचार नहीं कर रहे हैं, से जान लो बरका बुद्धि लगाने वालों. सच्चे-सच्चे लीखे हैं. एगो बात आउरो जिनकरा के ई लगता हो कि खाली लिट्टिए-चोखा ऊहां मिलता है, गलतफहमी में हैं. अरे दूसरो-दूसरो राज्य के स्टाल हैं. हां सब चीज खाने के बाद पानी 15 रुपए मिलेगा आ बीच में मन करे कि चाह पीना है तो ऊ भी 10 रुपए मिलता है. इसीलिए पानी आ चाह भकोस के जाइएगा.
नोट - अब तक जी में पानी आ गया हो तऽ चल न जाइए, हम बोल न रहे हैं.
शनिवार, 24 नवंबर 2007
रविवार, 18 नवंबर 2007
नागार्जुन के दो रंग
बैठे-बैठे सोच रहा था तब तक नागार्जुन हाथ में आ गए। पेश है उनके दो रंग
यह तुम थीं
कर गयी चाक
तिमिर का सीना
जोत की फांक
यह तुम थीं
सिकुड़ गयी रग-रग
बनाकर ठूंठ छोड़ गया पतझार
उलंग असगुन सा खडा रहा कचनार
अचानक उमगी डालों की संधि में
छरहरी टहनी
पोर-पोर में गसे थे टूसे
यह तुम थीं
झुका रहा डालें फैलाकर
कगार पर खडा कोढी गूलर
ऊपर उठ आयी भादों की तलैया
जुडा गया बौने की छाल का रेशा-रेशा
यह तुम थीं।
१९५७
शासन की बंदूक
कड़ी हो गयी चांपकर कंकालों की हूक
नभ में विपुल विराट-सी शासन की बंदूक
उस हिटलरी गुमान पर सभी रहे हैं थूक
जिसमें कानी हो गयी शासन की बंदूक
बढ़ी बधिरता दसगुनी, बने विनोबा मूक
धन्य-धन्य वह, धन्य वह, शासन की बंदूक
सत्य स्वयं घायल हुआ, गयी अहिंसा चूक
जहाँ-तहां दगने लगी शासन की बंदूक
जली ठूंठ पर बैठकर गयी कोकिला कूक
बाल न बांका कर सकी शासन की बंदूक
१९६६
आगे संभव हुआ तो किताब है ही, और खंगालूँगा यात्रीजी को। अब तक के लिए नमस्ते।
यह तुम थीं
कर गयी चाक
तिमिर का सीना
जोत की फांक
यह तुम थीं
सिकुड़ गयी रग-रग
बनाकर ठूंठ छोड़ गया पतझार
उलंग असगुन सा खडा रहा कचनार
अचानक उमगी डालों की संधि में
छरहरी टहनी
पोर-पोर में गसे थे टूसे
यह तुम थीं
झुका रहा डालें फैलाकर
कगार पर खडा कोढी गूलर
ऊपर उठ आयी भादों की तलैया
जुडा गया बौने की छाल का रेशा-रेशा
यह तुम थीं।
१९५७
शासन की बंदूक
कड़ी हो गयी चांपकर कंकालों की हूक
नभ में विपुल विराट-सी शासन की बंदूक
उस हिटलरी गुमान पर सभी रहे हैं थूक
जिसमें कानी हो गयी शासन की बंदूक
बढ़ी बधिरता दसगुनी, बने विनोबा मूक
धन्य-धन्य वह, धन्य वह, शासन की बंदूक
सत्य स्वयं घायल हुआ, गयी अहिंसा चूक
जहाँ-तहां दगने लगी शासन की बंदूक
जली ठूंठ पर बैठकर गयी कोकिला कूक
बाल न बांका कर सकी शासन की बंदूक
१९६६
आगे संभव हुआ तो किताब है ही, और खंगालूँगा यात्रीजी को। अब तक के लिए नमस्ते।
बुधवार, 14 नवंबर 2007
अंतराल के बाद.....
खुश होने के कई कारणों के पीछे, होते हैं कई अंतराल,
बीच की कुछ घटनाएं उन्हें जोड़ती हैं, एक नया अंतराल जनमाने के लिए.
कुछ ऐसा भी घटित होता है जीवन में, कल्पना जिसकी न की हो कभी
सुखद हो या दुखद, ये 'कुछ' भी दे जाता है अंतराल, एक नया अंतराल जनमाने के लिए.
आकांक्षाएं, मनोरथ, भावना, ममत्व, ऐसे शब्द जहन में उभरते हैं जब
समय उन्हें बे-अख्तियार घूरता रहता है, अपनी चुभन से दम निकालने के लिए
ताकि फिर वही अंतराल पैदा हो, एक नया अंतराल जनमाने के लिए.
फिर बांध कर आस डगर पार पहुंचने के लिए, इंसान कोशिश ही तो कर सकता है,
कहां पाट सकता है उस अंतराल को, जो जीवन में उसके दे जाता है अंतराल,
एक नया अंतराल जनमाने के लिए.
उस अंतराल के बाद दुनिया रुक तो नहीं जाती, कदम थम तो नहीं जाते इंसान के,
उस अंतराल के बाद के जीवन को जीने के लिए, लेकिन कहां भरती है वो खाली जगह
जिसे किन्हीं महत्वपूर्ण क्षणों में जीया है किसी ने, अपने भीतर महसूसती उस कसक को,
कहां भूलता है आदमी एक अंतराल के बाद........
बीच की कुछ घटनाएं उन्हें जोड़ती हैं, एक नया अंतराल जनमाने के लिए.
कुछ ऐसा भी घटित होता है जीवन में, कल्पना जिसकी न की हो कभी
सुखद हो या दुखद, ये 'कुछ' भी दे जाता है अंतराल, एक नया अंतराल जनमाने के लिए.
आकांक्षाएं, मनोरथ, भावना, ममत्व, ऐसे शब्द जहन में उभरते हैं जब
समय उन्हें बे-अख्तियार घूरता रहता है, अपनी चुभन से दम निकालने के लिए
ताकि फिर वही अंतराल पैदा हो, एक नया अंतराल जनमाने के लिए.
फिर बांध कर आस डगर पार पहुंचने के लिए, इंसान कोशिश ही तो कर सकता है,
कहां पाट सकता है उस अंतराल को, जो जीवन में उसके दे जाता है अंतराल,
एक नया अंतराल जनमाने के लिए.
उस अंतराल के बाद दुनिया रुक तो नहीं जाती, कदम थम तो नहीं जाते इंसान के,
उस अंतराल के बाद के जीवन को जीने के लिए, लेकिन कहां भरती है वो खाली जगह
जिसे किन्हीं महत्वपूर्ण क्षणों में जीया है किसी ने, अपने भीतर महसूसती उस कसक को,
कहां भूलता है आदमी एक अंतराल के बाद........
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