शुक्रवार, 18 सितंबर 2009

थरूर को आप माफ करेंगे ?

शशि थरूर ने हम जैसे पहले कभी विमान में न चढ़े और निकट भविष्य में विमान में चढ़ने वाले लोगों को कैटल क्लास कहा. अपन जैसे वे टुच्चे टाइप के लोग, जो विदेश तो नहीं ही गए हैं, देश में भी कभी विमान यात्रा का सुख नहीं ले पाए हैं, विदेश में सालों तक रहने के बाद यहां आकर झटके से विदेश राज्य मंत्री बन जाने वाले इस शख्स के इस बयान से टनों आहत हो गए हैं। आहत होकर अपन अभी कुछ करते, इतनें में थरूर भाई साहब ने सोनिया मांजी से माफी मांग ली. ये अलग बात है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह शुक्रवार की शाम से ही ये रट लगाने लगे थे कि थरूर के बयान को ज्यादा तूल दिया जा रहा है. अब भला मनमोहन जी क्यों नहीं इस मामले को तूल दिया जाना बताएंगे. वे भी तो पहली बार प्रधानमंत्री बनने के कुछ दिनों बाद इंग्लैंड जाकर बोल आए थे कि .. आप ही (अंग्रेजों ने) ने हमें सभ्यता सिखाई, अंग्रेजी सिखाया, हमने तो सीखा ही नहीं था कि सभ्य बना कैसे जाता है। आपको याद होगा हमारे माननीय प्रधानमंत्री का ये बयान, मैंने इनवरटेड कॉमा में नहीं लिखा.
तो... थरूर इसी कैटेगरी के नेता हैं, जिन्हें उस जहीन जनता को कैटल क्लास कहते देर नहीं लगी जो भारत की आम जनता में अभी भी नहीं गिनी जाती. पता नहीं भारत के गांवों में बसने वाली उस जनता को थरूर क्या कहेंगे जो हवा में उड़ते हवाई जहाज को देखकर भी सिर्फ ट्रेन में ही चढ़कर संतोष कर लेती है। लेकिन थरूर ने तो किसी घाघ राजनीतिज्ञ की तरह माफी मांग ली. सभी तरह की जनताओं से. यह जनता पर है कि वह अपने को किस श्रेणी में मानती है. वह विमान में चढ़ने वाली कैटल क्लास की है, या गांवों में रहने वाली. लेकिन थरूर को माफी मिलेगी.

रविवार, 12 अप्रैल 2009

तुझे अभी कई और विष्णु को जन्म देना है...




हिंदी के मूर्धन्य साहित्यकार विष्णु प्रभाकर नहीं रहे. उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के मीरापुर में जन्मे इस साहित्य-शिल्पी की याद इस गांव के गली-कूचों में रची-बसी है। ये अलग बात है कि प्रभाकर कब के यहां से चले गए. लेकिन अपनी माटी कब छूटी है किसी से, जो उनसे छूटती. शायद इसीलिए जब कुछ साल पूर्व बीबीसी ने उनका साक्षात्कार प्रसारित किया तो उनकी भाषा ठेठ पश्चिमी यूपी वाली थी. उन्होंने कहा भी कि 'ऐ माटी तुझे अभी कई और विष्णु को जन्म देना है...'

आज के लिए बस इतना ही...... और बस थोड़ा सा ये कि अब और कौन है प्रभाकर के जैसा... हिंदी का पुत्र..........

शनिवार, 7 मार्च 2009

होली पर दुल्हिन की पाती दूल्हे के नाम

अमवा के डाल पर, कुहके है कोयली
फगुआ त आ गेल सजन काहे न अयली
अंखिया सुखायल, हम निंदिया गंवायल
अहांके न जनली हमर बिंदिया हेरायल।

तन से हमर अंचरा गिरैत हय
सखि बरजोरी हमरा रंगैत हय
केकरा से कहू, कि हम सुनाऊ
दुइए दिन बाकी हवे, जल्दी से आऊ।

के देखे गाल, के देखे कमरिया
अंग-अंग के रंगलक ननदिया
देवरो हमर पाछे न रहइय
मुहल्ला बुला के हमरा रंगइय।

आयब जखनी अहां दुखवा हम कहब
मनवा अहीं पर कइसे हम सूतब
पलंग न गद्दी, न तोसक सुहाइय
होली में सैयां हमर मन हहराइय।

चिट्ठियो के पन्ना भरल जाइत हय
रतिया के सिसकी सब क्यो सुनैत हय
देखब इहो फगुआ न बीत जाय
अहांके दुल्हिन, दुल्हिने रह जाय।

पाश की दो कविताएं

संसद
जहरीली शहद की मक्खी की ओर उंगली न करें
जिसे आप छत्ता समझते हैं
वहां जनता के प्रतिनिधि बसते हैं।
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उम्र
आदमी का भी कोई जीना है
अपनी उम्र कव्वे या सांप को बख्शीश में दे दो।

शुक्रवार, 6 मार्च 2009

जय हो को तो छोड़ देते


बहुत से लोग राजनीति को गंदा कहते हैं. होगी शायद... पर मैं व्यक्तिगत रूप से सहमत नहीं। हालांकि अभी मैं इस बात पर बहस करने नहीं आया हूं। अभी तो जय हो। कांग्रेस पार्टी ने इस आठ आस्कर पुरस्कार विजेता फिल्म के इस प्रसिद्ध गाने का कापीराइट खरीद लिया है। अब हो सकता है कि राहुल गांधी अमेठी में आजा-आजा जिंदे शामियाने के तले... गाते नजर आएं या फिर उनकी बहन प्रियंका रायबरेली में अपनी अम्मा की सीट बचाने को लोगों को स्लमडागों को नीले-नीले आसमां के तले... इकट्ठी करती दिखें। बहरहाल नुकसान जय हो... का होगा. गुलजार का होगा। अपने रुहानी रचयिता एआर रहमान का या साउंड इंजीनियर रेसुल पूकुट्टी का। क्योंकि इन लोगों ने इस एक फिल्म के इस एक गाने को बनाया और प्रसिद्ध किया. और कांग्रेस ने इन लोगों का बना-बनाया माल एक झटके में गटक लिया. मानो, दूध सारा आपका, मलाई मेरा.
ऐसा नहीं है कि कांग्रेस के पास इस गाने के अलावा चुनाव में लगाने को नारे नहीं थे। कांग्रेस ने ही पहली बार देश से गरीबी हटाई थी, सांप्रदायिकता का सत्यानाश किया और न जाने क्या-क्या। लेकिन इस बार जय हो खरीदकर कांग्रेस ने अपनी 'क्रिएटीविटी' पर लगाम लगा दिया. ये भी हो सकता है कि अपने चुनाव प्रबंधकों को शायद मंदी का डर दिखाने के लिए गीदड़ भभकी दी हो, कि देखो अच्छे नारे बनाओ वरना तुम्हारा नाड़ा खोल देंगे।
मुझे रंज इस बात का नहीं है कि जय हो... बिक गया। खेद इस बात का है इस लोकसभा चुनाव के बहाने अब वह कितनी बार कितने लोगों के हाथ बिकेगी। भले ही भारतीय लोकतंत्र में चुनाव सबसे बड़ा महापर्व हो लेकिन इतना तो सब जानते हैं कि इस दौरान राजनीतिक दलों द्वारा अपनाई जाने वाली प्रक्रियाएं कुछ हद तक तो घिनौनी होती ही हैं. यदि अपराधी किस्म के प्रत्याशी जय हो का नारा लगाएंगे तो पखवाड़ेभर पहले तक फिल्म (आधी ब्रिटिश-आधी भारतीय) को लेकर इतरा रहे हम लोगों का सिर शर्म से झुक नहीं जाएगा? क्या अपने कर्मों को लेकर जनता के बीच प्रदूषित छवि बना चुके लोकसभा उम्मीदवार इस विश्व प्रसिद्ध गाने को अपने ही जैसा प्रदूषित नहीं कर देंगे? डर इसी बात का है. कांग्रेस ने यही किया है. जन-सामान्य के गीत को अपने जनों के लिए सामान्य कर दिया है. इस गाने के गीतकार गुलजार का विरोध इसीलिए जायज है. हमें उनके विरोध का समर्थन करना चाहिए. क्योंकि यह कहीं न कहीं हमारी भारतीयता के हालिया बने प्रतीक की छवि को धूमिल करने का प्रयास सरीखा दिखता है.

मंगलवार, 10 फ़रवरी 2009

दो दृश्य

सीन 1
श्रीलंका की राजधानी कोलंबो में छक्के पड़ रहे थे और उसी देश की अंतर्राष्ट्रीय सीमा से सटे कुछ इलाके बम-धमाकों की गूंज सह रहे थे। यकीन कीजिए सब कुछ एक ही साथ हो रहा था। पिस रही थी जनता। एक तरफ तो उसे मार्केट का खिलाया-पिलाया क्रिकेट देखना पड़ रहा था तो दूसरी ओर गैर-मार्केट का कहर झेलते हुए धमाके सुनने पड़ रहे थे। मजे की बात ये थी कि एक ही रेडियो पर दोनों ही बातें ट्यून करने वाले समान-भाव से दोनों ही खबरों को जज्ब कर रहे थे। हाय रे आदमी!
सीन 2
मंदिर की घंटी बजाकर लौट रहे एक आदमी ने झोले से कुछ खाद्य पदार्थ नि·ाला और सामने बैठे व्यक्ति के रीते हाथों को भर दिया। व्यक्ति खुश। बच्चों को बुला लिया। पास ही बैठे कुत्ते भी आ गए। आदमी हंसा। बोला - देखो कुत्ते जैसी गति है इंसान की। आदमी घर पहुंचा। पत्नी की झल्लाहट से बचने को सामने के पार्क में चला गया। पत्नी झुंझलाई सी बोली - देख रहे हो चिंटू की अम्मा। मेरी फटकार से बचने के लिए पार्क में जाकर बैठ गए हैं। चिंटू की अम्मा ने पार्क के दूसरे छोर पर नहा रही एक पागल सी भिखारी को झिड़कते हुए पत्नी की तरफ देखकर कहा - सामने से तो हट जा... देख नहीं रही वो बैठे हैं! हाय रे आदमी!

मंगलवार, 6 जनवरी 2009

मंदी के दौर में

आजकल मंदी चल रही है. भारत और पाकिस्तान युद्ध जैसी बातें कर रहे हैं. अमेरिका अपने नए राष्ट्रपति की प्रतीक्षा कर रहा है. पता नहीं बीच में इजरायल पर उसके पड़ोसी फलस्तीन के आतंकी संगठन हमास ने हमला कर दिया. अब इजरायल भारत तो है नहीं कि पाकिस्तान को बार-बार, और बार, धमकाएगा कि देख ले बेटा, अब नहीं माने तो मारेंगे, हां..., उसने हमास पर हमला बोल दिया. लगे लोग मरने, और दुनिया शोर करने. अमेरिका बोला, अभी मंदी है पहले जरा मैं अपना घर ठीक कर लूं तब तक हमास आतंकी संगठन है. मुस्लिम देशों ने कहा, अमेरिका की बेटी की बदचलनी का सबको पता है, अब वह घर छोड़कर भाग रही है, उसे रोको. पहले से ही पड़ोसी से परेशान भारत भी पाकिस्तान को धमकाने वाले अंदाज में दुनिया के सुर में सुर मिला के कहने लगा, हां हमला ठीक बात नहीं है. मगर इजरायल तो इजरायल ठहरा. उसे कहां किसकी फिक्र. मंदी भी उसके इरादों को डगमगा नहीं पाई. उसने हमला चालू रखा.
मगर मंदी उसे तो बड़े-बड़े देशों, बड़े-बड़े लोगों के साथ लगने की बीमारी है, वह अपने काम में लगी रही. अमेरिकी बैंक डूबते रहे, यूरोप के सपने सीलते रहे, एशिया के कुछ हिस्से भी चूंकि इससे महफूज नहीं रह पाए थे, सो उन्होंने भी मरहम-पट्टी चालू कर दी. इन सबके बीच भारत कहता रहा कि हम मंदी से ज्यादा प्रभावित नहीं हैं, तो यहां के लोगों को भी यही लगा कि मंदी हमें क्या मारेगी. हालांकि इस मंदी का एक ट्रेलर जरूर लोगों ने कुछ माह पहले जेट एयरवेज के कर्मचारियों की छंटनी के रूप में देखा था, लेकिन उससे क्या. यहां जब भगत सिंह को पड़ोसी के घर में पैदा होने की सलाह दी जाती है, तो भला ये क्यों माना जाएगा कि मंदी हमारी कंपनी में भी आएगी. लेकिन मंदी तो मंदी ठहरी. भारत सरकार की कही बातों से भले न आई मगर यहां के कई कंपनी उसे ले आए. तब जाकर लोगों को लगा कि जिस तरह महंगाई बिना कहे आ जाती है उसी तरह मंदी भी बिना कहे आई. बेचारे लोग, मौजूदा गृहमंत्री और एक्स-वित्तमंत्री से आस लगाए बैठे थे कि वे कुछ कर लेंगे. पर एक्स-वित्तमंत्री कौन सी अमेरिकी कंपनी को कब रोक पाए थे कि मंदी को रोकते, सो मंदी दबे पांव आ ही गई.
अब भइया, जब मंदी आ ही गई तो स्वागत करो. क्योंकि हमारा देश भारत है, यहां मेहमां जो हमारा होता है, वो जान से प्यारा होता है. जिस दिन नौकरी छूटे एक्स-वित्तमंत्री से कहना कि वह तुम्हारे गृह मंत्रालय को सुधार दें.......