सोमवार, 20 अगस्त 2007

हम क्यों बोलते नहीं...

जीवन में कई ऐसे मौके आते हैं जब हमें बोलना पड़ता है. बोलना शरीर का वैचारिक बोध-प्रदशॆन भी है. पर मामला जब वैचारिक हो तो विचार करना स्वाभाविक है. विचार प्रकट कहां करना है, कहां किया जा सकता है, कैसे किया जाना चाहिए, क्यों किया जाना जरूरी है, इसके क्या प्रभाव पड़ेंगे आदि तथ्यों पर बोलने के पहले सोचा जाना विचार के प्रभाव को निरूपित करता है. हम कई बार अपने वरिष्ठों (तथाकथित ही सही) के सामने सिफॆ इसीलिए वैचारिक रूप से कमतर पड़ जाते हैं कि शायद मेरी बात उन तक सही तरीके से संप्रेषित होगी अथवा नहीं. यह अलग बात है कि वे वरिष्ठ भी सिफॆ इसीलिए हमारी बात को तवज्जो नहीं देना चाहते क्योंकि उन्हें लगता है कि उनकी अरसे से चली आ रही भ्रमात्मक विचारधारा कायम रहे. दुनिया की कई आसान सी समस्याएं इसी कारणवश समाधान के साहिल तक पहुंचने से अब तक वंचित हैं. हां यह जरूर है कि इन समस्याओं के समाधान को ढूंढ़ने की कवायद, निरी भी कहलें, लगातार जारी रहती हैं.
बोलने का इतिहास विश्वभर में और खासकर भारत में समृद्ध है. बतरस की कला हमारी देसज संस्कृति का अभिन्न हिस्सा हुआ करती थी, और है. फिर भी हम बात-चीत में कमजोर पड़ते हैं. क्यों, यह संभवतः कठिन प्रश्न है. और तो और आपके लिए यह सोचना भी मुश्किलात खड़ी कर सकता है कि बातों से जीतना हम जैसों के लिए मुहावरा सरीखा है. इतने पर भी बोलने में हम कमजोर सिद्ध होते हैं, इसकी पड़ताल जरूरी है. करें क्या..., अजी छोड़िए, पड़ताल कर हम क्योंकर अपनी आफत मोल लें. वे वरिष्ठ हैं, वे सोच लेंगे. हा...हा...हा...