शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2007

फिर मचाया तहलका तहलका ने


तीखी पत्रकारिता समाज को दिशा देती है. कई लोग कहते हैं कि यह कोरी बात है. लेकिन अपनी कलम या कह लें कैमरे (आज के दौर में) से इस कोरेपन को मिटाया जा सकता है. आपरेशन कलंक इसी की एक कड़ी है. गुजरात के दंगे नरसंहार के रूप में याद किए जाते है. देश के कई राजनीतिक दल इसे सदी अपने-अपने शब्दों में विशेषण देते हैं. भाजपा भी इसे देश के नाम पर कलंक कहती है. कांग्रेस तो जघन्यतम कृत्य कहगी ही क्योंकि ये दंगे उसके शासनकाल में नहीं हुए. छुटभैये दल भी गाहे-बगाहे कुछ न कुछ बोल ही लेते हैं. हां, हिंदुत्ववादी संगठन जरूर गुजरात दंगे के बाद इस प्रदेश को हिंदुत्व की प्रयोगशाला कहने लगे हैं. कमोबेश नरेंद्र मोदी को दोषी मानने वालों की संख्या इस दंगे के बाद ज्यादा ही हुई है. ऐसे में जब तहलका इन दंगों पर स्टिंग आपरेशन करता है तो भाजपा की त्योरियां चढ़नी स्वाभाविक है.

आपरेशन के मीडिया में छा जाने के एक दिन बाद रविशंकर प्रसाद ने प्रेस कांफ्रेंस में कहा कि यह कांग्रेस की चाल है. चूंकि अभी चुनाव है इसीलिए कांग्रेस समर्थित तहलका ने यहां स्टिंग कराया. रवि बाबू का तकॆ था कि गुजरात जो कि देश के विकसित राज्यों की पहली पंक्ति में है, जहां की जीडीपी देश की जीडीपी से कदम-से-कदम मिलाकर चल रही है, जहां होने वाले चुनाव में विकास मुद्दा बनने वाला था, वहां पर अभी क्यों कांग्रेस ने स्टिंग कराया. यानि यदि स्टिंग बाद में होता तो भाजपा को दिक्कत नहीं होती. आशय ये भी कि कोई भी कांग्रेसी स्टिंग एजेंसी गुजरात में चुनाव के बाद स्टिंग करा सकती है. अब यह तकॆ तो किसी के गले उतरेगा नहीं कि कोई भी स्टिंग आपरेशन चुनावों को देखकर किया जाए. खासकर पत्रकारों के गले जिन्हें कि ऐसे समाचारों की जरूरत हमेशा ही रहती है. शायद दशॆकों के गले भी न उतरे जो स्टिंग-फिक्सिंग कैसी भी ब्रेकिंग न्यूज के लिए चैनल खोले बैठे रहते हैं. लिहाजा रवि बाबू की मुश्किल आसान नहीं होने वाली है.

रवि बाबू के प्रेस कांफ्रेंस में कई और बातें निकल के आईं. उनका कहना था कि गुजरात विकास कर रहा है इसलिए उसके विकास से जलकर लोग स्टिंग करा रहे हैं. उसकी जीडीपी बढ़ रही है इसीलिए स्टिंग कराया जा रहा है. भाजपा के नरेंद्र मोदी जैसे तेजतर्रार मुख्यमंत्री की कायॆकुशलता से जलकर लोग स्टिंग करा रहे हैं. अब भला कोई रवि बाबू को बताए कि तहलका जैसों का धंधा ही है स्टिंग करना. जैसे आपकी पार्टी बिना मोदी के नहीं रह सकती उसी तरह तहलका बिना स्टिंग के नहीं रह सकता. रवि बाबू को याद दिला दें कि अभी उन्हीं की पार्टी के नरेंद्र मोदी ने गुजरात में भाजपा की एक सीडी जारी की. इसमें सब कुछ था. गुजरात की समृद्धि थी, उसका विश्वपटल पर बदलता रूप था, जब-तब अन्य लोगों द्वारा की गई गुजरात या उसके नरेंद्र मोदी की प्रशंसा थी. मगर नहीं थे तो पार्टी के मुखौटा कहे जाने वाले अटलजी, वर्तमान अध्यक्ष राजनाथ सिंह. और न जाने इनके जैसे कई और कितने ही पार्टीवाले. रवि बाबू आपके नरेंद्र मोदी में ही कुछ बात है जिसके कारण जहां कहीं सिफॆ वही और वही दिखते हैं. अपनी सीडी में भी और तहलका की सीडी में भी. नरेंद्र मोदी में कुछ खास है जो उन्हें भीड़ से अलग करता है. रवि बाबू, इसीलिए अपने गिरेबां में झांकिए और देखिए. कहीं गोधरा में उस साबरमती एक्सप्रेस को जलाते मोदी दिख जाएंगे. विचार करिए कि देश की नाक कटा देने वाले उस दंगे में आपके न सही बहुतों के अपनों की जान चली गई थी. अभी समय है, आप विचार कर सकते हैं. कहीं यह वक्त निकल गया तो... अब आपकी सरकार भी नहीं रही जो तरुण तेजपाल को बेवजह के लफड़ों में फंसाने की मंशा रखती थी. ऐसा न हो कि तहलका फिर कोई तहलका कर दें और आपको पत्रकारों के सामने पार्टीवाले सफाई देने के लिए भेज दें.

शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2007

रा.....म.... लीला............. में हम दोनों



बहुत
दिन नहीं हुए हमारा रिश्ता ग्रामीण रंगमंच से टूटे. महज पांच साल ही तो. लगता है सदियां गुजर गईं इंतजार में. फिर विजय ने कहा मूंगफली के बहाने रामलीला देखेंगे. सुनकर दिल खुश हो गया. उसे बता नहीं सकता था कितनी खुशी हुई. इसलिए नहीं कि रामलीला देखने जा रहे थे. इसलिए कि उसे पता था नाटक मुझे अच्छा लगता है. करना भी, कराना भी, देखना भी और दिखाना भी. ऐसे में रामलीला, वाह मजा आ गया.
दरअसल, अखबार में आकर अपन तंग हो गए हैं. कपड़े में नहीं, जिंदगी में. आनंद नामक शब्द की व्याख्या बदल सी गई दिखती है. पहले जब गांव में नाटक होते तो लगभग हम सपरिवार उसके गवाह हुआ करते थे. कभी-कभार हम भाई और बाबूजी ही. लेकिन गणित के एक्स फैक्टर की तरह मैं कॉमन हुआ करता था. पहले गांव, फिर बगल वाले गांव और फिर दूर-दूर तक. हमारे इलाके में होने वाला कोई भी नाटक मुझसे शायद ही अछूता रहता हो. फिर हम पढ़ाई में जुट से गए. और कुछ दिनों के बाद नौकरी में. हालांकि पढ़ाई के दौरान ऐसा नहीं था कि नाटक छूट गया, स्नातक तो थोड़ी बहुत, परास्नातक में तो लगा कि पुरानी दुनिया लौट आई है, लेकिन वह विराम जैसा कुछ था. माखनलाल पत्रकारिता विवि में पढ़ते हुए ऐसा कभी नहीं लगा कि हमारा रिश्ता नाटक से टूटा हो. इसलिए भोपाल वाले मित्र भी मेरी नाटक-प्रियता से भली-भांति वाकिफ हैं. विजय के रामलीला का न्योता इसीलिए खुशी का द्योतक था.
अपने नाटक का पुराण बहुत हो गया, शीषॆक की ओर लौटें. दरअसल मेरठ में रामलीला देखने का मौका मिलना सिफॆ सुखद ही नहीं, आश्चयॆजनक अनुभव भी था. यहां कहां इतनी फुसॆत मिलती है कि राम जैसों का लीला देखने जाएं. लेकिन महाष्टमी को यह घटना घटी. हम रामलीला देखने गए. चारों तरफ जबदॆस्त भीड़. संभ्रांत और अ-संभ्रांत सभी तरह के लोगों का जमावड़ा. आमतौर पर सामने रहने वाला मंच यहां भी सामने था. वहां सूत्रधार भी खड़े थे. और नृत्य चल रहा था. ''जोड़ा-जोड़ी चने के खेत में'' का रिकाडॆ बज रहा था और 'नृत्यांगना' (दरअसल वह लड़का ही था) का अंग-प्रत्यंग थिड़क रहा था। भाव, मुद्रा, ताल, थाप, गीत, संगीत आदि संबंधी विशेषग्यता की खास जरूरत नहीं थी, सो ये ताम-झाम नहीं थे. हम और विजय मंच पर नजर गड़ाए राम या रावण, किसी की प्रतीक्षा करने लगे.
खैर, सूत्रधार ने घोषणा की और पहले रावण आया. (नाटक हो जाए, ध्यान ये रखिएगा कि किसी भी पात्र के डायलाग का पहला अक्षर नाभिकुंड से उठना चाहिए, बाकी शब्द दशॆकों को सुनाई न भी दें तो चलेगा. हालांकि कुछ पोशॆन मैंने लेखकीय स्वतंत्रता के तहत संपादित कर दिए हैं, बाकी जस-का-तस है. इसके लिए माफी. )
रावण - जय....शंकर जी....महाराज
दरबारी - जय....शंकर जी....महाराज
रावण - वी.......रों, राम अपनी से...........ना लेकर आ गया है.
दरबारी - जी.... महाराज
रावण - हम........ राम को लंका आने का मजा........ चखाकर रहेंगे
दरबारी - जी.... महाराज
रावण - इंदर.........जीत, तुम सेना लेकर जाओ
इंद्रजीत - जो आग्या. (प्रस्थान)(इसे राजधानी एक्सप्रेस की स्पीड में पढ़ें)
रावण - (दूसरे नायक से) तुम........ भी इंदरजीत के साथ जाओ.......... और युद्ध करो
नायक - जो आग्या (प्रस्थान)(इसे भी राजधानी एक्सप्रेस की स्पीड में पढ़ें)
रावण - जय....शंकर जी....महाराज

दृश्य परिवतॆन

ऐसा ही एक दृश्य और देखा हमने. आनंद आया. ब्रेक में नागिन डांस भी था. विजय और हम दोनों ही संगीत प्रेमी हैं. गाने जी लगा के सुनते हैं. कई बार हमने भी सामूहिक रूप से नागिन डांस किया है. लिहाजा मंच पर जो कुछ भी घटित हो रहा था उससे हमारे शरीर की रोमावलियों को रोमांच होना मौलिक था, इसमें हमें भी आश्चयॆ नहीं हो रहा था, आप भी मत करिए. लेकिन आफत ये थी कि हारमोनियम मास्टर कब धुन बदल देता था इसका पता न तो दशॆकों को लग पाता ता और न ही उस डांसर को. अलबत्ता डांसर तो ॥रंग.. में डूबी रहा होगा (आमतौर पर हमारे यहां का रहता है.), उसे हारमोनियम मास्टर की बदमाशी का पता नहीं चल रहा था. दशॆक फ्री में नाच देख रहे थे, उनका क्या जा रहा था. दफ्तर में हम डाक एडीशन छोड़ कर आए थे, सिटी का टाइम हो गया था. हम चल पड़े.
रास्ते में दोनों ही बात कर रहे थे जैसे कि कुछ भूल गए हों. माथे पर जोड़ दिया दोनों ने ही. विजय को याद आ गया. बोला, अरे गुरु पांच रुपैय्या वाला सीन तो ठीक से कर ही न पाए ये लोग. मैंने कहा, हां यार, जब तक ...फलाने ने इस डांस पर खुश होकर पांच रुपैय्या.. ढिकाने डांसर को इनाम दिया.. इसके लिए उनका हम शुक्रिया..अदा..कर..ती..हूं...., न कहा जाय मजा नहीं आता. विजय ने भी कहा, हां.

शनिवार, 13 अक्तूबर 2007

जहाँ तक पहुंचती है नज़र....

शीर्षक को भ्रमात्मक बनाने का आशय पिछले पोस्ट को ही आगे बढ़ाने है. हालांकि पहली बार अपने ब्लोग को किसी अग्रिगेटर से जोड़ने की कोशिश मैंनें की ताकि मेरा ब्लोग किसी अग्रिगेटर से जुड़ जाये. ब्लोग्वाणी पर लिखा था की 'लिंक डालो, तेरा ब्लोग दिखेगा.' पर मुझे दिखा नहीं. तो मित्रो, (सचिन तुम ज्यादा !) यदि आपलोग मुझे अपने ब्लोग को ब्लोग्वाणी पर डालने का तरीका विस्तार से समझा दें तो कृपा होगी.........

खैर, वापस लौटते हैं विकास पर। चित्रकूट कार्यशाला मुख्यतः दो भागों में बंटी थी. पहला विकास की वतॆमान दिशा और स्थिति पर विचार जो अमूमन ऐसी किसी कायॆशाला के पहले सत्र में खास हुआ करती है. दूसरा आगे की कायॆयोजनाओं पर विमशॆ ताकि फलप्रद दिखे ये कवायद. मुझे लगता है कि आम कायॆशालाओं की तरह यहां भी पहला सत्र काफी सारे विद्वानों के काफी सारे तथ्य से भरा-पूरा रहा. इंदौर के सप्रेस वाले चिन्मय जी, झारखंड से आए अश्विनी जी, वहीं के निराला, भोपाल से पुष्पेंद्र पाल जी, आयोजकों में से एक सचिन जी जैसे तथ्यान्वेषियों ने अपने पिटारे जी भरकर खोले. इससे इस कायॆशाला का सेंसेक्स हजारी-दर-हजारी ही हुआ. यह सही भी है क्योंकि जब तक विकास को आंकड़ों के तराजू पर तौलकर देखनेवाली सरकार को उन्हीं के मुंह पर मारे जाने वाले आंकड़े न मारे जाएं, उन्हें 'लगता' ही नहीं....
सबसे जो सही बात इस कायॆशाला की रही वह था इसका 'इंटरएक्टिव' होना. इससे आम कायॆशालाओं या सेमिनारों में बैठकर झक मारनेवाले या कह लें सोनेवालों को घोर निराशा हुई होगी. पहली बैठक का ही बात-चीत से शुरू होना और अंत तक इसी स्वरूप में चलना अच्छी बात रही. हालांकि कम अवधि का होने से वक्ताओं को थोड़ी मुश्किल जरूर हुई, लेकिन यह 'टालरेबल' था.
कुछ बातें उस दिन अधूरी ही थीं कि किसी नामुराद ने पोस्ट पर क्लिक कर दिया. इसके लिए सौरी. आगे देखते हैं...

जो मुख्य बातें इस कायॆशाला में सामने आईं उनमें
१.विकास के लिए व्यक्तिगत तौर पर सहभागिता हर स्तर पर होना चाहिए
२. जिससे जितना जहां बन पड़ रहा है, उसमें कमी नहीं की जानी चाहिए
३. विकास संबंधी सूचनाओं से अपने-आपको अपडेट रखना भी जरूरी है

४. मीडिया में विकास संबंधी गतिविधियों का नियमित अवलोकन भी जरूरी ....
इसके अलावा कई और भी बिंदु थे जिनकी ओर उक्त कायॆशाला में आए लोगों का ध्यान गया होगा। दरअसल इस पोस्ट का शीषॆक जहां तक पहुंचती है नजर...रखने का कारण भी यही था. विकास संबंधी मुद्दों की आज देश में यही स्थिति है. सुदूर बस्तर से लेकर कालाहांडी या उत्तर-पूवॆ की स्थिति या फिर महाराष्ट्र और आंध्र में किसानों की खुदकुशी, कहीं भी तो हम निश्चिंत नहीं हैं. फिर एक पहल भर की तो जरूरत है हमें विकास के लिए आगे बढ़ने की.....कहिए, खूब भाषण हो गया न.... मैंने सोचा विकास-विकास रटते-रटते आपको गुदगुदी लगा दूं....

बाकी कल...

मंगलवार, 9 अक्तूबर 2007

दो दिनों का एफ-5


पिछले 6 और 7 तारीख को हम कुछ पत्रकार चित्रकूट में थे. मौका था विकास संवाद पर कायॆशाला का. बहाना सरकारी विकास की भागमभाग भरी रफ्तार के बीच मौलिक और टिकाऊ विकास की बात करने का. चित्रकूट जैसी जगह के चयन को लेकर पहले तो लगा था कि यह महज घुमाऊ-फिराऊ कायॆक्रम होगा। लेकिन उन दो दिनों में यह धारणा या कह लें कयास बेकार साबित हुआ. इतना ही नहीं वहां आए तकरीबन 50 ज्यादा पत्रकारों के बीच रहकर नौकरी करते रहने की मानसिकता से भी उबरने का मौका मिला. इसी बीच वहीं पर किसी ने पूछा कि 'क्यों आए हो' , तो अपने पास जवाब मौजूद था; वे कंप्यूटर से जूड़े व्यक्ति थे. हमने कहा, यह दो दिनों का एफ-5 है. उनके लिए यह शायद अचंभित करने जैसा था। और उन्हें यह भी लगा कि यह व्यक्ति क्या पत्रकारिता करता होगा जो गंभीर जगहों पर भी हास्य का भाव पैदा कर रहा है. मेरे सहयोगी रूपेश वहीं मौजूद थे, उन्हें हंसी आ गई.
दरअसल नौकरी करते-करते हम अखबारदां लोगों की मनःस्थिति कुछ ऐसी हो जाती है कि हमें अपने लिए सोचने का मौका कम मिलता है. ऐसे में जब सेमिनार, वकॆशॉप या ऐसी ही कुछ अन्य 'सरफिरी' बातें हमारे सामने आती हैं, तो वह हमें महज मजाक लगती हैं. हम अपनी छुट्टियों को सहज भाव से न लेकर उसे 'कामों' के लिए बचाए रखते हैं. यह बड़ी खतरनाक स्थिति है. चिकित्सकीय शोधों और निष्कषॆ के आधार पर भी इसे सवॆ-स्वीकायॆ नहीं माना गया है. खासकर जब इस कायॆशाला की बात की जाए तो यहां तो बिल्कुल भी नहीं लगा कि यह 'रिफ्रेसिंग' नहीं था. हां, बच्चों को पढ़ाए जाने की तरह यहां भी खेल-खेल में बहुत सारी बातें काम की हो गईं.

इस कायॆशाला की बातें अगले अंक में...