बैठे-बैठे सोच रहा था तब तक नागार्जुन हाथ में आ गए। पेश है उनके दो रंग
यह तुम थीं
कर गयी चाक
तिमिर का सीना
जोत की फांक
यह तुम थीं
सिकुड़ गयी रग-रग
बनाकर ठूंठ छोड़ गया पतझार
उलंग असगुन सा खडा रहा कचनार
अचानक उमगी डालों की संधि में
छरहरी टहनी
पोर-पोर में गसे थे टूसे
यह तुम थीं
झुका रहा डालें फैलाकर
कगार पर खडा कोढी गूलर
ऊपर उठ आयी भादों की तलैया
जुडा गया बौने की छाल का रेशा-रेशा
यह तुम थीं।
१९५७
शासन की बंदूक
कड़ी हो गयी चांपकर कंकालों की हूक
नभ में विपुल विराट-सी शासन की बंदूक
उस हिटलरी गुमान पर सभी रहे हैं थूक
जिसमें कानी हो गयी शासन की बंदूक
बढ़ी बधिरता दसगुनी, बने विनोबा मूक
धन्य-धन्य वह, धन्य वह, शासन की बंदूक
सत्य स्वयं घायल हुआ, गयी अहिंसा चूक
जहाँ-तहां दगने लगी शासन की बंदूक
जली ठूंठ पर बैठकर गयी कोकिला कूक
बाल न बांका कर सकी शासन की बंदूक
१९६६
आगे संभव हुआ तो किताब है ही, और खंगालूँगा यात्रीजी को। अब तक के लिए नमस्ते।
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