रविवार, 18 नवंबर 2007

नागार्जुन के दो रंग

बैठे-बैठे सोच रहा था तब तक नागार्जुन हाथ में आ गए। पेश है उनके दो रंग

यह तुम थीं

कर गयी चाक
तिमिर का सीना
जोत की फांक
यह तुम थीं

सिकुड़ गयी रग-रग
बनाकर ठूंठ छोड़ गया पतझार
उलंग असगुन सा खडा रहा कचनार
अचानक उमगी डालों की संधि में
छरहरी टहनी
पोर-पोर में गसे थे टूसे
यह तुम थीं

झुका रहा डालें फैलाकर
कगार पर खडा कोढी गूलर
ऊपर उठ आयी भादों की तलैया
जुडा गया बौने की छाल का रेशा-रेशा
यह तुम थीं।

१९५७

शासन की बंदूक

कड़ी हो गयी चांपकर कंकालों की हूक
नभ में विपुल विराट-सी शासन की बंदूक

उस हिटलरी गुमान पर सभी रहे हैं थूक
जिसमें कानी हो गयी शासन की बंदूक

बढ़ी बधिरता दसगुनी, बने विनोबा मूक
धन्य-धन्य वह, धन्य वह, शासन की बंदूक

सत्य स्वयं घायल हुआ, गयी अहिंसा चूक
जहाँ-तहां दगने लगी शासन की बंदूक

जली ठूंठ पर बैठकर गयी कोकिला कूक
बाल न बांका कर सकी शासन की बंदूक

१९६६

आगे संभव हुआ तो किताब है ही, और खंगालूँगा यात्रीजी को। अब तक के लिए नमस्ते।