सोमवार, 23 जुलाई 2007

कश्चितकांता विरहगुरुणा...

महाकवि कालिदास रो रहे हैं । ताज्जुब नहीं हो रहा, क्योंकि मात्र अपनी लेखनी से मेघ को प्रेमिका के लिए संदेशवाहक बना देने वाले इस महान भारतीय मनीषी से आषाढ़ का यह सूखा महीना देखा नहीं जा रहा है । आश्चयॆ भी हो रहा है कालिदास को कि क्यों इस तरह की शैतानी पर उतर आया है मेघ । विरह को कागज पर उतारकर तड़प की नई श्रेष्ठता तक पहुंचाने की कालिदास की यह गाथा मेघ की अठखेलियों से अठखेली ही है जिसने न जाने कितने प्रेमियों को विरह-वेदना में तड़पने का आनंद दिया है । फिर भला जब मेघ ही न हो तो कैसी तड़प और कैसा विरह। सब अधूरे से ही तो दिखेंगे ।
पिछले एक महीने से बारिश की उम्मीद लगाए बैठे लोग-बाग खेतों में दम तोड़ती फसलों को देखकर हतप्रभ हैं । एक-दूसरे से पूछते हैं, बारिश के आसार हैं भई ? फिर प्रश्न के साथ जवाब के लिए जूझने में लग जाते हैं । दिन भर में जब कभी-कभार आसमान में बादल दिख भी जाते हैं तो उनकी सूरत रोनी ही होती है । फिर किसान तो किसान हैं बादलों की शैतानी देखने की उन्हें आदत है । लेकिन प्रेमी क्या करें ? उन्हें तो बादलों की जरूरत है भी और नहीं भी । मन की तरंग को उल्लास के साथ बहने देने के लिए बादल चाहिए, बाग में एक-दूजे से आराम से मिल सकें इसके लिए आसमान खुला होना भी जरूरी है । फिर जब ये बादल बरसे भी न तो बाग कहां से हरियाली पाए और प्रेमी किस झाड़ी को ओट बनाएं । और तो और खल-नायकों का डर भी तो बना होता है जो गाहे-बगाहे उन पर नजर रखे होते हैं । बारिश उन्हीं खल-नायकों से बचाती है इन प्रेमियों को । अव्वल एक तो ये खल-नायक बारिश की बूंदों को सह नहीं पाते, दूसरा प्रेमियों की मनोदशा से इनका सरोकार नहीं होता, फिर बारिश की बूंदों का क्या मतलब। तब बताएं कि विरह की मनोदशा में पड़े प्रेमियों के लिए बादलों ने अति कर रखी है या नहीं । कालिदास शायद इसीलिए रो रहे हैं ।