प्रयागराज के आसमान से ऐसी दिखती है गंगा. (साभार-https://prayagraj.nic.in/) |
यह साल 1988 की बात होगी, जब हम तीन भाई अपनी दादी की आकांक्षा पर बाबूजी और मम्मी के साथ इलाहाबाद की यात्रा पर निकले थे. सीतामढ़ी, जहां बाबूजी एक कॉलेज में शिक्षक थे, वहां से मुजफ्फरपुर और फिर सोनपुर तक की यात्रा रोमांचक रही. सीतामढ़ी से बस में नितांत आगे बैठकर हाजीपुर और फिर सोनपुर तक की यात्रा मजेदार थी. खासकर मुजफ्फरपुर से सोनपुर तक की यात्रा हम पुरानी जयंतीजनता और आज की वैशाली एक्सप्रेस से तय करने वाले थे. जयंतीजनता पहली ऐसी ट्रेन थी, जिसके कोच में मिथिला पेंटिंग या कहें मधुबनी पेंटिंग्स लगाए गए थे. बिहार से पलायन का इतिहास पुराना है, लेकिन उस समय यह कलकत्ता तक ज्यादा केंद्रित था. दिल्ली जाने वालों के लिए जयंतीजनता पॉपुलर थी. इसी ट्रेन से हम लोगों को मुजफ्फरपुर से सोनपुर तक जाना था, जहां से आगे की ट्रेन. एक और खास बात यह कि सीतामढ़ी से दरभंगा तक का सफर छोटी लाइन की ट्रेनों यानी मीटर गेज के जरिये तय किया जाता था, जबकि उस दिन का सफर बड़ी लाइन यानी ब्रॉड गेज पर होना था, 10 साल का मैं और क्रमशः 8 व 6 साल के दोनों छोटे भाई, ट्रेन में खिड़की साइड की सीट के लिए अक्सर झड़प किया करते थे. जाहिर सी बात थी कि जयंतीजनता में भी इसकी चाह थी ही, लेकिन उससे ज्यादा बड़ी लाइन की ट्रेन होगी कैसी, उस दिन यह बड़ा आकर्षण था. ऐसे में जब बड़ी लाइन की यह बड़ी सी ट्रेन धड़धड़ाती हुई मुजफ्फपुर स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर पहुंची, तो शरीर के रोयें एकबारगी नाच उठे.
हमारा उत्साह उछाह मार रहा था, लेकिन उसे ट्रेन की भीड़ ने दबाकर रख दिया. जैसा याद है, खीझ गए थे हम लोग. बाबूजी और मम्मी या दादी नहीं, उन्हें इस भीड़ का शायद अनुमान रहा होगा. गांव की यात्राओं के दौरान बस या ट्रेन में भीड़ हमारे लिए नई नहीं थी. लोगों के बीच ठुंस-ठुंसकर जान में हम तीनों प्रवीणता की ओर बढ़ रहे ही थे, लेकिन जयंतीजनता जैसी ट्रेन में भी इस कदर भीड़ होगी, यह किशोरवय से पहले की आकांक्षाओं पर कुठाराघात था. खैर, ट्रेन आई, बाबूजी ने राह दिखाई और हम लोग उसमें जद्दोजहद करते हुए सवार हो ही गए. बीच में संबल देने वाली बातें दादी की थीं, जब वह कहती थीं कि तीर्थयात्रा पर कष्ट सहयात्री की भांति चलता है. इसके साथ ही आनंद के क्षण तलाश करने चाहिए. ट्रेन में चढ़ने के बाद और यात्रियों के बीच जगह बनाने की या मात्र खड़े होने भर की रस्साकशी के बीच, दादी का ये सूत्र, सचमुच काम का लगा. बमुश्किल 5 मिनट के ठहराव के बाद जयंतीजनता के ड्राइवर ने ट्रेन को हरकत दी, और लोहे की सवारी लोहे पर दौड़ पड़ी.
प्लेटफॉर्म छूटते-छूटते ट्रेन रफ्तार पकड़ने लगी थी. हम उस महान ट्रेन को हवा से बात करता हुआ देखना चाहते थे, ट्रेन हमारी आशाओं को पंख देने लगी थी. धड़-धड़, खड़-खड़.... हिलते-डुलते यात्रियों के बीच भागती ट्रेन जितना आनंद दे रही थी, वह शायद आज रनवे छोड़ता हवाई जहाज भी नहीं देता और न ही राजधानी एक्सप्रेस जैसी वीआईपी ट्रेन ही वह अनुभव करा पाती है. जाड़े का मौसम नहीं था, लेकिन सरपट दौड़ती ट्रेन की खिड़कियों से आती हवा इतनी तेज लग रही थी कि गर धूप न होती, तो हम चादर ओढ़ लेते. अनुभव अद्भुत था. हमारा सफर छोटा था, महज घंटेभर का भी नहीं, लेकिन अनुभूति अपार मिल रही थी. हम दिल्ली भले नहीं जाना चाहते थे, लेकिन सुपरफास्ट ट्रेन में बैठे रहना चाहते थे. हम जयंतीजनता की वह जनता थे, जो उसके साथ उसके सफर को जी लेना चाहते थे, लेकिन..., हमारे सोचते-सोचते गंगा आ गई. वही गंगा नदी!
हाजीपुर और सोनपुर को यह गंगा ही अलग कर देती है और इसे जोड़ता है वह विशाल पुल, जिस पर से हम गुजरने वाले थे. अब तक कमला, गंडक और लखनदेई नदी की ऊपर से गुजरने का अनुभव रखने वाले हमारे लिए गंगा का यह पुल अतुलनीय था. ट्रेन की रफ्तार पुल पर आकर आंशिक रूप से कम हो गई थी, जो सुकून की बात थी. लेकिन तब भी वह इतनी कम नहीं थी कि हमें आंखभर पुल को देखने देती. हम लोहे के बड़े-बड़े खंभों को भरपूर देखना चाहते थे, उसके बीच से झांकती गंगा को अनुभव कर लेना चाहते थे, लेकिन ट्रेन हमें सोनपुर पहुंचाने पर आमादा थी, उसे और लोगों की साध भी पूरी करनी थी. पुल पर बिछी पटरियों की गड़गड़ाहट का जो आनंद था, अहा.......क्या कहना. हम सोनपुर पहुंचे गए, जो हमारा पहला गंतव्य था. यहां इलाहाबाद या प्रयाग जाने के लिए हमें कुछ देर प्रतीक्षा करनी थी, जहां फिर छोटी लाइन की ट्रेन ही थी, लेकिन अंतर यह कि वह पैसेंजर नहीं, फास्ट पैसेंजर थी.
सोनपुर स्टेशन, कभी एशिया में सबसे लंबे प्लेटफॉर्म के लिए जाना जाता था. इसकी वजह इस स्थान की ऐतिहासिकता है. यहां सैकड़ों वर्षों से सबसे बड़ा पशु मेला लगता रहा, जाहिर है मेले में दूर-दूर से आने वालों की तादाद को देखते हुए हम लोगों ने अंदाजा लगा लिया कि यही वजह होगी कि इस स्टेशन का प्लेटफॉर्म सबसे लंबा है. जयंतीजनता सुपरफास्ट एक्सप्रेस से उतरने के बाद हमें पूरा प्लेटफॉर्म घूम आने की अनुमति नहीं थी, लेकिन बैठने और चादर बिछाने की जगह ढूंढने के बीच हमारी आंखों ने वर्चुअल तरीके से ही सही, पूरी प्लेटफॉर्म को नाप ही लिया. कुछ देर के बाद फिर हम तीनों को आंशिक ही सही, प्लेटफॉर्म पर घूमने की स्वतंत्रता मिल भी गई. इसकी एक वजह यह भी थी कि सोनपुर आने वाले ट्रेनों की तादाद उस वक्त उतनी नहीं थी, जैसी आज है. इसलिए एक बड़ी ट्रेन के जाने के घंटों बाद तक प्लेटफॉर्म खाली ही पड़ा रहता था. यूं भी मेले के अलावा उस स्टेशन पर तब भीड़ भी कम ही हुआ करती थी, इसलिए खाली स्थान का अभाव नहीं था. हम दोपहर से पहले ही मुजफ्फरपुर से आ पहुंचे थे, और प्रयाग जाने वाली हमारी फास्ट पैसेंजर शाम में रवाना होने वाली थी. इसलिए बीच का 5-6 घंटा पर्याप्त था, उस लंबे प्लेटफॉर्म को देखने के लिए.
प्रयागराज से लौटते वक्त हम जिस दिन काशी पहुंचे, उस दिन सुबह जबर्दस्त भूकंप भी आया था. तस्वीर 21वीं सदी की है. |
सोनपुर स्टेशन का एक और अनुभव यादगार है. दिन का खाना बनाने और खाने का. हम ब्राह्मण परिवार से हैं, जो धार्मिक रूप से संवेदनशील है. बाहर खाना, इसलिए वर्जित ही था. आज भी कमोबेश है ही, मगर अब चूंकि हम लोग एकांगी यात्रा करने लगे हैं, इसलिए वर्जनाओं के साथ ब्राह्मण बने रहना सीख लिया है. मगर, आज से करीबन तीन दशक पहले ऐसा सोचना भी वर्जित था. बिस्किट या चॉकलेट की बात और थी, पका हुआ भोजन तो न के बराबर ही होता था. सफर के दौरान तो.....ओ माई गॉड! तो किस्सा कुछ यूं है कि प्रयाग जाने से पहले मम्मी ने सबको घर का पका और हेल्दी खाना खिलाने का ही संकल्प ले लिया था, जिसके बरक्स उन्होंने सफर के सामान में स्टोव, मिट्टी का तेल और खाना बनाने के सारे सामान संग कर लिए थे. आत्मनिर्भर होने का पाठ हम तीनों को बचपन से ही पढ़ाया गया था, इसलिए सफर के दौरान सामान उठाना, हमारे आनंद में बाधक कभी नहीं बनता था. लेकिन उस दिन सोनपुर स्टेशन पर जब ये पता चला कि एक तो स्टेशन पर बनने वाला खाना हम खा नहीं सकते और ऊपर से हम जो सामान उठा रहे हैं, उसमें ऐसी चीजें भी लाई गईं हैं, तो तीनों ही खीझ उठे थे. चूंकि विरोध की परिणति हमें पता थी, सो घुटकर रह गए.
मम्मी ने बैग से स्टोव निकाली, उसमें मिट्टी का तेल डाला गया और फिर एक-एक कर सारे बर्तन बाहर आते गए. दादी के होने की वजह से नितांत सामान्य और सरसतम भोजन ही बना, जो घंटों के भूखे हम सभी ने छककर खाया. इसके बाद शुरू हुआ, प्रयागराज फास्ट पैसेंजर के खुलने यानी चलने का इंतजार. एक बात और, प्रयागराज फास्ट पैसेंजर शाम में चलकर यात्रियों को अहले सुबह इलाहाबाद छोड़ती थी. इलाहाबाद से आने वाली इस ट्रेन की रैक भी सुबह ही पहुंचती थी, लिहाजा ट्रेन को धो-पोछकर दोपहर में ही प्लेटफॉर्म पर खड़ा कर दिया जाता था. जिन यात्रियों को यह ट्रेन पकड़नी होती थी, वो घंटों पहले आते और अपनी-अपनी सीटें लेकर ट्रेन की रवानगी का इंतजार करते. हम भी ऐसे ही यात्रियों की भीड़ का हिस्सा बन गए थे. अब सिर्फ मम्मी और दादी ही ट्रेन के अंदर थीं, हम तीनों भाई और बाबूजी प्लेटफॉर्म पर. बाबूजी को स्वाभाविक रूप से दूर तक टहलने की आजादी थी, हमें अपनी बोगी की खिड़कियों के आगे और मम्मी की आंखों के सामने ही रहना था.
आखिरकार, वह क्षण आया जब इलाहाबाद ले जाने वाली उस फास्ट पैसेंजर ने सीटी दी और हम बिहार छोड़ उत्तर प्रदेश की इस धार्मिक नगरी की यात्रा पर निकल पड़े. सीतामढ़ी से निकलने से पहले और उससे भी पहले दादी हमें प्रयाग कुंभ की कहानियां सुनाया करती थीं. कुंभ के दौरान एक चाची के बिछड़ने और बाबूजी द्वारा उनकी तलाश करने की कहानी आज भी जहन में ताजा है. इलाहाबाद, हमारे ननिहाल के कुछ पितृ-पुरुषों का कर्म क्षेत्र रहा है, हमें वह कहानियां भी याद थीं. नेहरू जी के आनंद भवन के बारे में तब उतनी जानकारी नहीं थी, लेकिन इलाहाबाद बहुत बड़ा शहर है, यह हमें पता था. वहां कुंभ लगता है, 12 साल में एक बार बड़ा मेला होता है, हर साल माघ के महीने में भी लोग वहां जाते हैं, प्रयाग-वास भी किया जाता है, ये ब कहानियां दादी या मम्मी ने बताया हुआ था. इन सभी संस्मरणों के साथ हम इलाहाबाद जा रहे थे. यह ट्रेन चूंकि जयंतीजनता नहीं थी, इसकी पटरियों की माप से हम रूबरू थे ही, लेकिन छोटे स्टेशनों और हॉल्ट पर नहीं रुकती थी, इसलिए यही इसकी खासियत थी. बीच में छोटे स्टेशन आते और हमारी आंखों के सामने से निकल जाते, तो दिल को बड़ा गजब का फील होता था. लगता था कि अपनी रूट के 'शीशो' (दरभंगा से सीतामढ़ी के बीच पड़ने वाला हॉल्ट) को हम चिढ़ाते हुए निकल लिए. शाम को चली ट्रेन में अंधेरा घिरते ही खाने-पीने का प्रबंध शुरू हो गया था. इस ट्रेन में यात्री ठुंसे हुए नहीं थे, सो बैठने-लेटने की थोड़ी स्वतंत्रता थी. फास्ट पैसेंजर होने की वजह से इसकी रफ्तार अच्छी थी, इसलिए गेट के आसपास जाने की खतरनाक तरीके से मनाही थी. हम इतने से ही खुश थे कि चलो सबको खिड़की तो मिली. बहरहाल, खाना शुरू हुआ, जो अगले 15-20 मिनट के भीतर निपट गया. यह रिजर्वेशन वाली बोगी नहीं थी, लेकिन चूंकि जगह भरपूर थी, सो हम सभी सोने या बैठते हुए ही सोने की प्रक्रिया में जुट गए.
अहले सुबह जब नींद खुली तो यूपी आ गया था, हम अपने गंतव्य के करीब आ चुके थे, लेकिन अभी कुछ देर और ट्रेन में ही रहना था. इलाहाबाद से पहले संभवतः प्रतापगढ़ के आसपास से हमारी ट्रेन गुजर रही थी. सामने दूर-दूर तक पसरे खेत सामान्य ही थे, लेकिन उसमें खास था मोर का होना. एक-दो नहीं, बल्कि कई किलोमीटर तक खेतों और पेड़ों के आसपास मोर के झुंड देखना पहला अनुभव ही था. बड़ा मनोहारी..., खासकर जब वह ट्रेन के नजदीक के पेड़ों के पास दिखते तो खिड़कियों में से गर्दन निकालने की कसक बनकर रह जाती थी. कुछ और जीव-जंतु भी थे, लेकिन मोरों का वहां होना, हमारी यात्रा को मनोरम बना रहा था. खासकर इलाहाबाद पहुंचने से पहले ऐसे दृश्यों से लग रहा था कि सचमुच वह शहर कितना सुंदर होगा, जिसके बहुत दूर भी मोर रहते हैं. आज के दिनों से इन अनुभवों की तुलना करें, तो यकीनन न तो हम ऐसे पैसेंजर ट्रेनों की यात्रा कर पा रहे हैं और न ही ऐसे खेत ही दिखते जहां मोर खुलेआम घूम रहे हों.
यह झारखंड में गुमला जिले की सड़क है, जिससे होकर आप नेतरहाट जा सकते हैं. तस्वीर 2010 की. |
इलाहाबाद, अब प्रयागराज हो चुका है, 1988 को गुजरे 30 साल से ज्यादा हो चुके हैं. न सीतामढ़ी से मुजफ्फरपुर के बीच वैसी सड़कें रहीं और न ही अब सोनपुर से इलाहाबाद के बीच छोटी लाइन (मीटर गेज) की पटरियों पर वह फास्ट पैसेंजर दौड़ा करती है. अब हमारे बीच दादी भी नहीं रहीं और न ही स्टोव लेकर ट्रेन में चढ़ने की स्वतंत्रता या कह लें कि स्वच्छंदता ही बची है. प्रयागराज जाने या पहुंचने के साधन-संसाधन भी बदल चुके हैं. इलाहाबाद के बाद के वर्षों में मेरा परिवार भी अब विस्तार पा चुका है. हमने एक साथ कई स्थानों की यात्राएं भी की हैं, लेकिन हर यात्रा में जयंतीजनता की याद, सोनपुर का प्लेटफॉर्म और इलाहाबाद पहुंचने से पहले मोर और हिरणों की यादें अब भी कम से कम हम तीन भाइयों के बीच साझा जरूर होती रहती हैं.