मंगलवार, 9 अक्तूबर 2007

दो दिनों का एफ-5


पिछले 6 और 7 तारीख को हम कुछ पत्रकार चित्रकूट में थे. मौका था विकास संवाद पर कायॆशाला का. बहाना सरकारी विकास की भागमभाग भरी रफ्तार के बीच मौलिक और टिकाऊ विकास की बात करने का. चित्रकूट जैसी जगह के चयन को लेकर पहले तो लगा था कि यह महज घुमाऊ-फिराऊ कायॆक्रम होगा। लेकिन उन दो दिनों में यह धारणा या कह लें कयास बेकार साबित हुआ. इतना ही नहीं वहां आए तकरीबन 50 ज्यादा पत्रकारों के बीच रहकर नौकरी करते रहने की मानसिकता से भी उबरने का मौका मिला. इसी बीच वहीं पर किसी ने पूछा कि 'क्यों आए हो' , तो अपने पास जवाब मौजूद था; वे कंप्यूटर से जूड़े व्यक्ति थे. हमने कहा, यह दो दिनों का एफ-5 है. उनके लिए यह शायद अचंभित करने जैसा था। और उन्हें यह भी लगा कि यह व्यक्ति क्या पत्रकारिता करता होगा जो गंभीर जगहों पर भी हास्य का भाव पैदा कर रहा है. मेरे सहयोगी रूपेश वहीं मौजूद थे, उन्हें हंसी आ गई.
दरअसल नौकरी करते-करते हम अखबारदां लोगों की मनःस्थिति कुछ ऐसी हो जाती है कि हमें अपने लिए सोचने का मौका कम मिलता है. ऐसे में जब सेमिनार, वकॆशॉप या ऐसी ही कुछ अन्य 'सरफिरी' बातें हमारे सामने आती हैं, तो वह हमें महज मजाक लगती हैं. हम अपनी छुट्टियों को सहज भाव से न लेकर उसे 'कामों' के लिए बचाए रखते हैं. यह बड़ी खतरनाक स्थिति है. चिकित्सकीय शोधों और निष्कषॆ के आधार पर भी इसे सवॆ-स्वीकायॆ नहीं माना गया है. खासकर जब इस कायॆशाला की बात की जाए तो यहां तो बिल्कुल भी नहीं लगा कि यह 'रिफ्रेसिंग' नहीं था. हां, बच्चों को पढ़ाए जाने की तरह यहां भी खेल-खेल में बहुत सारी बातें काम की हो गईं.

इस कायॆशाला की बातें अगले अंक में...