यह हेडिंग आज अच्छी लगी. जनसत्ता में पढ़ी. ऐसा नहीं था कि पहली बार ही पढ़ी थी लेकिन आज के ब्लाग पर लेखन के लिए अच्छी थी. दरअसल बहुत दिनों के बाद एक ब्लाग पढ़ा. याद आ गया कि मैं भी कभी ब्लाग पर लिख लिया करता था. बस बैठ गया. यह भी पता था कि इसे पढ़ेंगे कुछ ही लोग. लेकिन लिखना था सो लिखना था.
इस हेडिंग की बाबत बता दूं यह आलेख आर्थिक विषय से संबंधित था. पर साहित्यिक अंदाज में. सो दे मारा है. हां तो मुद्दे पर आएं. आजकल दफ्तर में और बाहर आने-जाने वालों पर लोगों की नजर टिकती नजर आती है. बात वही पुरानी सी. नया क्या, कौन गया, कितने में गया आदि...आदि.... अमूमन जवाब वही होता है. सब तो गए पर हम तो रह ही गए यार. खैर मालिकों की बेईमानी, कर्मचारियों की वफादारी (दोनों तथाकथित ही कह लें, फर्क नहीं पड़ता) सिस्टम की लाचारी और अनेकानेक बातों से होती हुई परिचर्चा खत्म हो जाती है. कह लें लोग थक गए हैं ऐसी बातों को सुनते हुए. फिर भी लगे पड़े हैं. ऐसे में मुझे यदि ये हेडिंग सूझती है तो क्या गलत है... क्यों
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