मंगलवार, 11 सितंबर 2007

अनुभव



कल अपने हषॆ भाई की कार में बैठकर चाय पीने गए। अच्छा लगा. ड्राइवर नया था, हम बैठने वाले भी उन्हीं की तरह के सवार थे. लेकिन इसमें नया क्या है. दरअसल अनुभव नया है. कार में इससे पहले भी बैठे हैं हम लोग. उसमें बैठकर चाय पी है, बातें की हैं, खालें छीली हैं आदि-आदि. लेकिन कल का बैठना थोड़ा सुहाना था.
याद है जब पहली बार कार में बैठे थे। उस फिएट के दरवाजे से पता नहीं क्यों बाहर आ रही ग्रीज ने मेरी शटॆ पर धब्बे छोड़ दिए. अव्वल बैठ तो गए थे संख्या ज्यादा थी इसलिए आराम नहीं था. खैर खिड़की के पास बैठने का मौका हाथ लगा था तो उसके शीशे को ऊपर-नीचे करने का भी. आजकल की कारें तो पावर-विंडो से लैस होती हैं. तब वालियां हस्त-कमॆ पर आश्रित हुआ करती थीं. तो भई, हम पद्मिनी कंपनी की बनाई सत्तर के दशक में खरीदी गई और अभी तक तथाकथित रूप से मेनटेंड फिएट में बैठे थे. यह साल १९९४ चल रहा था. हमने मैट्रिकुलेशन की परीक्षा ही थी. परीक्षा के बाद वैसे भी कुछ नया करने का जी होता है. हम कार की सवारी कर रहे थे. वो भी फिएट की जो राजा-गाड़ी यानी एंबेस्डर की टक्कर में आई थी.
कार चली. गांव की सड़क पर कार चल रही थी. सड़क क्या थी साहब, ईंटों को तिरछे खड़ा कर उसे एकसाथ रख भर दिया था. लोग उस पर चलने लगे थे, सो वह सड़क कहाने लगी थी. हमारी फिएट किसी रानी की तरह उसी सड़क पर दौड़ी चली जा रही थी. अंदर बैठे हम और हमारे भाई-बंधु. हा-हा-हा, ही-ही-ही, हू-हू-हू आदि जैसी हंसने सरीखी आवाज कभी-कभार कार से बाहर आ जाती थी. यह पता उससे लगता था जब बाहर सड़क पर जा रहा साइकिल सवार कार की हानॆ से हड़बड़ा कर कार की ओर देखने लगता था. खैर, कार अपने लक्ष्य से अभी पांच किलोमीटर दूर थी. उसमें बैठे एक भाई को शु-शु हो आई. यह आई तब थी कार बियाबान में चल रही थी. ऐसा नहीं था कि रात थी और किसी भूत-वूत का खतरा था. पर भई कार थी, बियाबान में कैसे रुकती. रुक भी जाती तो दरवाजा कैसे खुलता. दरवाजा खोलने के लिए ड्राइवर को पूरा त्रिपेक्षण करके आना पड़ता. ड्राइवर ही क्यों गेट खोलता, इसका कारण ये था कि सिफॆ वो ही कार में गेट खोलना जानता था. बाकी सब खिड़की के पास बैठकर हवा खाने वालों में से थे. तो भाई साहब का शु-शु. अब भी एक उलझन थी. दरअसल शु-शु बिना जल यानी पानी लिए हो नहीं सकती थी. इसलिए किसी तालाब या पोखर के सामने ही कार रोकी जा सकती थी. गांवों के रास्ते में अमूमन कई तालाब और पोखर होते ही हैं. लेकिन हमारी कार चलते-चलते जिस जगह पर पहुंच गई थी वहां कम से कम साफ पानी से भरा ऐसा कुछ भी नहीं दिख रहा था. अब क्या हो. समस्या मुंह बाए खड़ी थी, बेहतर समाधान पीछे छुट गए थे, कामचलाऊ यहां मिल नहीं रहे थे. खैर, ड्राइवर ने एक ..खत्ता.. (वैसे गड्ढे जहां अस्थाई तौर पर पानी जमा हो जाता है) देखा. भाई साहब ने भी देख लिया था यह उनका चेहरा बता रहा था. कार रुकी. भाई साहब उतरे. हो आए. लेकिन ड्राइवर ने शैतानी की थी. वह भी चला गया था. हमें कार में ही छोड़ गया था. मुसीबत ये थी कि हम में से भी कइयों को शु-शु करनी थी. पर कार का दरवाजा कैसे खुलेगा ये नहीं पता था. हम बैठे ही रह गए. भाई साहब आ गए. कार चल पड़ी. वे चूंकि आराम पा चुके थे. उनके मुंह से काफी राहत भरी बातें निकल रही थीं. बाकी खोए-खोए से दिख रहे थे. कुछ देर तक तो सब उनकी सुनते रहे. लेकिन हद की भी सीमा होती है. एक उबल ही पड़ा. उसके देखे-देखे और धीरे-धीरे भाई साहब की ओर कभी तीखे तो कभी मधुर कटाक्ष बरसने लगे. भाई साहब की समझ में नहीं आ रहा था कि अभी तक लक्ष्मण बने भाइयों को रास्ते में कौन विद्रोही होने का पाठ पढ़ा गया. वे सोच में डूब गए. जब नतीजा कुछ न निकला तो अंततः पूछ ही लिया कि भई क्या हो गया. सब एकाएक से नाराज क्यों हो गए. तब तक हमारी कार अपने लक्ष्य पर पहुंच चुकी थी. ड्राइवर के दोनों कान कुछ देर पहले से ही गेट खोलने संबंधी अनुनय-विनय सरीखी बातें सुन-सुनकर ऊब चुकी थी. उसने झट गेट खोल दिया. हम उतर गए यह जाने बिना कि भाई साहब ने कुछ पूछा था.