मंगलवार, 10 जुलाई 2007

चन्द्रशेखर का यूं जाना किसी को दुःखी कर देगा। हालांकि वे अर्से से कैंसर से पीड़ित थे इसलिये इस क्षणभंगुर संसार से उनका जाना उनके ही हित में था। फिर भी एक धाकड़ राजनितिज्ञ के निधन से दुःख तो होता ही है।
चंद्रशेखर कि याद मस्तिष्क को उस दौर-ए-ज़माने में ले जाती है जब हम उन्हें 'भोंड्सी के संत' के रूप में जानते थे। 'माया' उन्हें भोंड्सी का संत कहा करती थी और तिवारी जी (नारायण दत्त तिवारी) को 'नई दिल्ली तिवारी'। हम हंसा करते थे और 'इस' राजनेता कि बचपने जैसी खिल्लियाँ उड़ाया करते थे। हम तीन भाइयों को ये पता नहीं होता था कि इसके चले जाने से हमारा ऐसा नुकसान हो जाएगा। फिर वो दिन भी आया जब भोंड्सी बाबा को बडे राजनेता के रूप में हमने जाना। कालांतर में यह जान लिया कि हरियाणा कि वो जगह जहाँ 'बाबा' ने आश्रम बनाया वो भोंड्सी थी। कल जब डेस्क पर उस भोंड्सी में बाबा की लगायी हरियाली को अरावली कि पहाड़ियों में लहलहाते देखा तो अनायास ही उनके कराए कार्य से श्रद्धा उमड़ आयी।
एक बार की और याद आयी। हम सभी लोग पश्चिमी चम्पारण के लौडिया में थे। चंद्रशेखर अपनी भारत यात्रा के दौरान वहाँ आने वाले थे। बाबूजी तीनों भाइयों को लेकर बडे सवेरे से सभा स्थल पर पहुँचने कि जद्दोजहद कर रहे थे। हमें ये समझ नहीं आ रहा था कि आख़िर भरी धूप में वहाँ हम तीनों का क्या काम? बाबूजी थे कि उस 'पदयात्री' कि खूबियां बताये चले जा रहे थे। खैर हम पहुंच गए। बाद में पदयात्री का भाषण जो सुना 'धन्य' हो गए। समय बीता। पदयात्री हमारे जीवन में सम्मानित के तौर पर उभरा।
उसी सम्मानित का यूं चले जाना अखर गया। अखबारों ने विला-शक बेहतरीन कवरेज किया। टीवी पर शुरुआती दौर में कम खबरें (मुख्य समाचारों में निचले क्रम में आने पर) आयीं। इस पर ग़ुस्सा भी आया। ऑफिस में सम्पादकीय प्रभारी से थोड़ी पैरवी के बाद पूरा पेज दिलवाने कि ख़ुशी आत्मा को सुकून दे गयी। लेकिन चंद्रशेखर का क्या करें वो तो चले गए।