शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2007

रा.....म.... लीला............. में हम दोनों



बहुत
दिन नहीं हुए हमारा रिश्ता ग्रामीण रंगमंच से टूटे. महज पांच साल ही तो. लगता है सदियां गुजर गईं इंतजार में. फिर विजय ने कहा मूंगफली के बहाने रामलीला देखेंगे. सुनकर दिल खुश हो गया. उसे बता नहीं सकता था कितनी खुशी हुई. इसलिए नहीं कि रामलीला देखने जा रहे थे. इसलिए कि उसे पता था नाटक मुझे अच्छा लगता है. करना भी, कराना भी, देखना भी और दिखाना भी. ऐसे में रामलीला, वाह मजा आ गया.
दरअसल, अखबार में आकर अपन तंग हो गए हैं. कपड़े में नहीं, जिंदगी में. आनंद नामक शब्द की व्याख्या बदल सी गई दिखती है. पहले जब गांव में नाटक होते तो लगभग हम सपरिवार उसके गवाह हुआ करते थे. कभी-कभार हम भाई और बाबूजी ही. लेकिन गणित के एक्स फैक्टर की तरह मैं कॉमन हुआ करता था. पहले गांव, फिर बगल वाले गांव और फिर दूर-दूर तक. हमारे इलाके में होने वाला कोई भी नाटक मुझसे शायद ही अछूता रहता हो. फिर हम पढ़ाई में जुट से गए. और कुछ दिनों के बाद नौकरी में. हालांकि पढ़ाई के दौरान ऐसा नहीं था कि नाटक छूट गया, स्नातक तो थोड़ी बहुत, परास्नातक में तो लगा कि पुरानी दुनिया लौट आई है, लेकिन वह विराम जैसा कुछ था. माखनलाल पत्रकारिता विवि में पढ़ते हुए ऐसा कभी नहीं लगा कि हमारा रिश्ता नाटक से टूटा हो. इसलिए भोपाल वाले मित्र भी मेरी नाटक-प्रियता से भली-भांति वाकिफ हैं. विजय के रामलीला का न्योता इसीलिए खुशी का द्योतक था.
अपने नाटक का पुराण बहुत हो गया, शीषॆक की ओर लौटें. दरअसल मेरठ में रामलीला देखने का मौका मिलना सिफॆ सुखद ही नहीं, आश्चयॆजनक अनुभव भी था. यहां कहां इतनी फुसॆत मिलती है कि राम जैसों का लीला देखने जाएं. लेकिन महाष्टमी को यह घटना घटी. हम रामलीला देखने गए. चारों तरफ जबदॆस्त भीड़. संभ्रांत और अ-संभ्रांत सभी तरह के लोगों का जमावड़ा. आमतौर पर सामने रहने वाला मंच यहां भी सामने था. वहां सूत्रधार भी खड़े थे. और नृत्य चल रहा था. ''जोड़ा-जोड़ी चने के खेत में'' का रिकाडॆ बज रहा था और 'नृत्यांगना' (दरअसल वह लड़का ही था) का अंग-प्रत्यंग थिड़क रहा था। भाव, मुद्रा, ताल, थाप, गीत, संगीत आदि संबंधी विशेषग्यता की खास जरूरत नहीं थी, सो ये ताम-झाम नहीं थे. हम और विजय मंच पर नजर गड़ाए राम या रावण, किसी की प्रतीक्षा करने लगे.
खैर, सूत्रधार ने घोषणा की और पहले रावण आया. (नाटक हो जाए, ध्यान ये रखिएगा कि किसी भी पात्र के डायलाग का पहला अक्षर नाभिकुंड से उठना चाहिए, बाकी शब्द दशॆकों को सुनाई न भी दें तो चलेगा. हालांकि कुछ पोशॆन मैंने लेखकीय स्वतंत्रता के तहत संपादित कर दिए हैं, बाकी जस-का-तस है. इसके लिए माफी. )
रावण - जय....शंकर जी....महाराज
दरबारी - जय....शंकर जी....महाराज
रावण - वी.......रों, राम अपनी से...........ना लेकर आ गया है.
दरबारी - जी.... महाराज
रावण - हम........ राम को लंका आने का मजा........ चखाकर रहेंगे
दरबारी - जी.... महाराज
रावण - इंदर.........जीत, तुम सेना लेकर जाओ
इंद्रजीत - जो आग्या. (प्रस्थान)(इसे राजधानी एक्सप्रेस की स्पीड में पढ़ें)
रावण - (दूसरे नायक से) तुम........ भी इंदरजीत के साथ जाओ.......... और युद्ध करो
नायक - जो आग्या (प्रस्थान)(इसे भी राजधानी एक्सप्रेस की स्पीड में पढ़ें)
रावण - जय....शंकर जी....महाराज

दृश्य परिवतॆन

ऐसा ही एक दृश्य और देखा हमने. आनंद आया. ब्रेक में नागिन डांस भी था. विजय और हम दोनों ही संगीत प्रेमी हैं. गाने जी लगा के सुनते हैं. कई बार हमने भी सामूहिक रूप से नागिन डांस किया है. लिहाजा मंच पर जो कुछ भी घटित हो रहा था उससे हमारे शरीर की रोमावलियों को रोमांच होना मौलिक था, इसमें हमें भी आश्चयॆ नहीं हो रहा था, आप भी मत करिए. लेकिन आफत ये थी कि हारमोनियम मास्टर कब धुन बदल देता था इसका पता न तो दशॆकों को लग पाता ता और न ही उस डांसर को. अलबत्ता डांसर तो ॥रंग.. में डूबी रहा होगा (आमतौर पर हमारे यहां का रहता है.), उसे हारमोनियम मास्टर की बदमाशी का पता नहीं चल रहा था. दशॆक फ्री में नाच देख रहे थे, उनका क्या जा रहा था. दफ्तर में हम डाक एडीशन छोड़ कर आए थे, सिटी का टाइम हो गया था. हम चल पड़े.
रास्ते में दोनों ही बात कर रहे थे जैसे कि कुछ भूल गए हों. माथे पर जोड़ दिया दोनों ने ही. विजय को याद आ गया. बोला, अरे गुरु पांच रुपैय्या वाला सीन तो ठीक से कर ही न पाए ये लोग. मैंने कहा, हां यार, जब तक ...फलाने ने इस डांस पर खुश होकर पांच रुपैय्या.. ढिकाने डांसर को इनाम दिया.. इसके लिए उनका हम शुक्रिया..अदा..कर..ती..हूं...., न कहा जाय मजा नहीं आता. विजय ने भी कहा, हां.