सोमवार, 22 फ़रवरी 2021

सीता के पास, जनकपुर से दूर

बिहार और नेपाल में रोटी-बेटी का संबंध है, यह अर्से से सुनते आए हैं. सन् 1983 के आखिरी दिनों में जब पिताजी का तबादला हुआ तो गोपालगंज से सीता की धरती यानी सीतामढ़ी आ गए. यह हिंदू धर्म की ख्यातिलब्ध और देवी के रूप में मान्यता प्राप्त सीता, जानकी, जनकदुलारी जैसे कई नामों से प्रसिद्ध रामायण के राम की पत्नी का जन्मस्थान है. सीतामढ़ी शहर से महज 5 किलोमीटर दूर पुनौरा जो अब पुनौराधाम हो चुका है, मान्यता है कि सीता का जन्म यहीं हुआ. धरतीपुत्री सीता के नाम पर ही इस शहर को सीतामढ़ी के नाम से जाना जाता है. उत्तर प्रदेश में भी इसी नाम से मिलता-जुलता एक शहर है. दावे किए जाते हैं कि रामायण के उत्तर कांड में जब सीता ने वर्षों की उपेक्षा से तंग आकर धरती-मैया से वापसी की प्रार्थना की, तो यहीं पर पृथ्वी ने उन्हें वापस अपनी गोद में समेट लिया था.

जनकपुर का जानकी मंदिर. (फोटो साभार- सुमित/फेसबुक)


धार्मिक मान्यताओं और भौगोलिकता के आधार पर बिहार का सीतामढ़ी, जनक-जननी के जन्मस्थान की ख्याति पा चुका है. यहां से नेपाल का जनकपुर भी कुछ ही दूरी पर है, लिहाजा पौराणिक काल में यह विदेह राजा जनक की रियासत का अंग रहा होगा, भौगौलिकता इसका प्रमाण देती है. हम इसी सीतामढ़ी में 80 के दशक के शुरुआत में आए थे. यहां आने के बाद स्थानीयता का बोध होने से पहले से ही जनकपुर नाम से हम परिचित हो गए थे. गांव में या हमारे सीतामढ़ी वाले घर (डेरा) पर आने वाले लोग अक्सर सीतामढ़ी और जनकपुर के कनेक्शन की चर्चा करते और साथ ही बताते कि क्यों बेटियों की शादी पश्चिम दिशा की तरफ नहीं करनी चाहिए. दरअसल, सीता को विवाहोपरांत जिन कष्टों का सामना करना पड़ा, उसको लेकर मिथिला में जनश्रुति प्रचलित है कि पश्चिम की तरफ बेटियों को ब्याहना उसे देवी या भगवती के रूप में मान्यता तो दिला देगा, लेकिन बिटिया को जीवनभर सीता की तरह कष्ट का भी सामना करना पड़ सकता है. अब भला कौन माता-पिता ऐसा जोखिम मोल लेना चाहेगा! ये अलग बात है कि किसी भी तरह की मान्यता या जनश्रुति पर अमल करने के प्रति मिथिलावासी कभी बाध्य नहीं होते. धार्मिक आचार-विचार की बात हो या सामाजिक व्यवहार, देश के अन्य भूभागों में रहने वालों की तरह मैथिल भी परिवर्तन को अनिवार्य मानते हैं.

बहरहाल, हम बात करते हैं सीतामढ़ी और जनकपुर की. सीतामढ़ी से इशाण कोण यानी ठीक उत्तर-पूर्व की तरफ आप बढ़ेंगे तो भिट्ठामोड़ नाम की जगह है, जहां पर स्थित भारत-नेपाल सीमा चौकी को पार कर आप पड़ोसी देश में प्रवेश करते हैं. भिट्ठामोड़ की सीतामढ़ी से दूरी 30-35 किलोमीटर है और वहां से जनकपुर करीब 20 किलोमीटर. यानी कि कुल जमा 50-55 किलोमीटर की दूरी लोग ऐवें ही तय कर सकते हैं. सीतामढ़ी से बाहर रहने वालों, खासकर हमारे रिश्तेदारों के बीच यह आम धारणा थी कि ये लोग तो पता नहीं कितनी बार जनकपुर जा सकते हैं. जनकपुर के माहात्म्य को लेकर एक मान्यता ये भी है कि सभी तीर्थस्थलों पर आप जाएं या न जाएं, एक बार अगर जनकपुर हो आए, तो सभी तीर्थों का फल मिल सकता है. इतनी धारणाओं और कट्टर मान्यताओं के बावजूद हम लोग जनकपुर नहीं गए थे. सीतामढ़ी में रामनवमी और विवाह पंचमी, यानी जिस दिन राम-सीता का विवाह हुआ था, दोनों ही अवसरों को खास तौर पर मनाया जाता है. विवाह पंचमी तो महीनेभर का उत्सव आज भी है, जब देश के अलग-अलग राज्यों और नेपाल से बड़ी संख्या में श्रद्धालु पहुंचते हैं. इन दोनों ही अवसरों पर कई-कई बार जनकपुर जाने की योजनाएं बनीं, लेकिन ग्राम्य-जीवन का प्रेम, धार्मिकता या पर्यटन पर हावी रहा. हम छुट्टियों में गांव चले जाते, जनकपुर बेचारा....., रह जाता.

जनकपुर जाने की एक वजह और थी, वह यह कि नेपाल का यह शहर 20वीं सदी की शुरुआत में हमारे पितामह यानी दादाजी लोगों का शहर हुआ करता था. दादी से सुनी तथ्यात्मक कहानी कुछ यूं है कि वर्ष 1930 में इंग्लैंड में आयोजित गोलमेज सम्मेलन में भारत के कई राजाओं-महाराजाओं ने भी शिरकत की थी. इन्हीं में से एक थे दरभंगा महाराज. यूं तो दरभंगा महाराज जमींदार ही थे, लेकिन अंग्रेजों का सान्निध्य भी उन्हें भाता था. महाराज आधुनिक सोच के थे, लेकिन क्षत्रिय न होकर ब्राह्मण कुल के थे. उनके स्तर पर इंग्लैंड जाने की राह में कोई रोड़ा नहीं था, लेकिन ब्राह्मण समाज समुद्र-लंघन यानी सागर के रास्ते विदेश यात्रा को निषेध मानता था. अब महाराज तो महाराज ठहरे, उन्हें जाना था, सो गए. लेकिन इधर, उनके कुल-गोत्र या समजातीय समाज के लोगों ने इसे वर्जित मानते हुए महाराज का बहिष्कार करने की योजना बना ली. महाराज थे, तो सीधा बहिष्कार मुश्किल था, इसलिए मिथिला क्षेत्र के कई गांवों के श्रोत्रीय ब्राह्मण समाज के लोगों ने नेपाल की तरफ पलायन करने का निर्णय लिया. इन्हीं लोगों में हमारे दादा और उनके दोनों भाई भी शामिल थे. नेपाल में उस समय राणा का शासन हुआ करता था, दरभंगा महाराज का 'कृत्य', उन्हें मालूम था ही, सो इन उच्च कुल ब्राह्मण परिवारों को उन्होंने सहर्ष अपने देश में शरण दी. जनकपुर, नेपाल के महोत्तरी जिले में पड़ता है. इसी जिले में धनुषा नाम की जगह भी है, वहीं पर हमारे पितामहों ने डेरा जमा लिया. संभवतः एक दशक से कुछ ज्यादा समय तक ये लोग वहीं रहे. 

यह पूरा प्रकरण हमारे मैथिल समाज 'स्वदेशी-बिलेंती' के नाम से आज भी सुना जाता है. जनकपुर में बसे कई परिवार इसी पलायन-कथा का हिस्सा हैं, जो प्रकरण समाप्त होने के बाद भी लौटकर नहीं आए. लेकिन अभी हम कहानी पर लौटते हैं, कुछ परिवारों के देश छोड़कर जाने से मिथिला को कोई फर्क भले न पड़ता हो, भारत में स्थित रिश्तेदारों और दरभंगा महाराज को तो पड़ता ही था. महाराजा भी चाहते थे कि उनकी वजह से पलायन करने वाले लौट आएं. लेकिन बाधा यह थी कि 'पाप' (समुद्र-लंघन का) करने वाले जब तक 'प्रायश्चित' नहीं कर लेते, उन्हें परिष्कृत समाज में वापस शामिल कैसे किया जाए. अब महाराज को तो प्रायश्चित करने के लिए कहा नहीं जा सकता, लेकिन उनसे जुड़े लोगों को तो यह करना ही था. गंगा किनारे जाकर वहां का बालू निगलिये, इसका प्रमाण भी होना चाहिए, तभी समाज में वापसी तय होगी. दादी सुनाती थीं कि उनके कई रिश्तेदारों ने सिमरिया (बिहार के बेगूसराय जिले का वह स्थान जहां मैथिल गंगास्नान करने जाते हैं) जाकर प्रायश्चित किया. किंवदंती यह भी है कि महाराज ने भी संभवतः कुछ उद्यम किया, ताकि उनके अपने लोग स्वदेश लौट सकें. अंततः स्वदेशी-बिलेंती का यह अध्याय समाप्त हुआ और हमारे दादाजी का परिवार वापस मधुबनी जिले में स्थित अपने गांव लौट आया. अब जबकि इस घटना के लगभग 50 साल बाद हम जनकपुर जा रहे थे, तो पिताजी की यह इच्छा कि उस जगह को देखें जहां उनके पिता ने वर्षों बिताए. मेरे कई ताऊजी भी इस ऐतिहासिक घटना के गवाह रहे थे, हम भी गांवों में जनकपुर से गांव तक की पैदल यात्राओं की कहानियां सुना करते थे, इसलिए हम लोगों की भी साध थी कि कहां है वह धनुषा, जहां दादाजी लोग रहे होंगे.

यही वजह थी कि हम सीता के तो पास थे, लेकिन जनकपुर से लंबे अर्से तक दूर ही रहे. बहरहाल, 90 के दशक के शुरुआती साल में आखिरकार वह दिन आ गया, जब हम लोग जनकपुर जाने का निश्चय कर ही बैठे. सीतामढ़ी के अत्यंत बड़े से मोहल्ले प्रताप नगर में हम लोग रहा करते थे, जहां से बस स्टैंड और रेलवे स्टेशन की दूरी महज कुछ पलों की ही थी. हमारा स्कूली जीवन शुरू हो चुका था, लिहाजा जनकपुर के लिए जाने वाले रास्ते, सड़कों और बसों के बारे में हमारे पास भरपूर जानकारी थी. यहां तक कि कौन सी बस जनरल है या कौन सी वीडियो कोच, उनका समय तक हमें मालूम था. किस बस की सीट गद्देदार और मुलायम, कौन सी बस सीधे भिठ्ठामोड़ तक ले जाती है या कौन सी रुक-रुककर गंतव्य तक पहुंचाती है, इसका पूरा विवरण हम लोगों के पास था. खासकर मेरे पास, क्योंकि माता-पिता के बाद घर के तीसरे सबसे बड़े सदस्य के रूप में सीतामढ़ी को भरपूर आंखों से देखने वाला मैं ही था. लेकिन दोनों छोटे भाइयों का स्कूल चूंकि बस स्टैंड के पास ही था, तो स्थानीयता के आधार पर बसों की टाइमिंग में मिनट भर के भी अंतर से मैं, पिछड़ जाता था.

खैर, सीतामढ़ी से जनकपुर जाने की योजना बन चुकी थी. वहां कैसे रहना है, किन-किन लोगों से मिलना है, उस शहर में क्या-क्या हैं, इन जानकारियों से हम तीनों भाई कम ही बावस्ता थे. जाहिर है जिसने मम्मी या बाबूजी से जितना जान लिया, वह अन्य दोनों पर अपने उस ज्ञान की शेखी बघारने का कोई मौका नहीं चूकता था. छोड़िए....जनकपुर चलते हैं! आखिरकार वह दिन आ गया, जब हम दोपहर से पहले किसी 'शानदार टाइप की बस' से भिठ्ठामोड़ के लिए रवाना हुए. खिड़की किनारे बैठने का लोभ तीनों को था, लेकिन जनकपुर जाना उससे ज्यादा महत्वपूर्ण, इच्छाओं का दमन कर दिया गया. बस नियत समय पर रवाना हो गई. सीतामढ़ी शहर छोड़ने से पहले मेहसौल की रेलवे गुमती आती थी, उसके पार करते ही जनकपुर पहुंचने की ललक तेज होने लगी. सफर लंबा नहीं था, बस भी सामान्य से तेज ही चल रही थी, लेकिन गंतव्य तक पहुंचने की इच्छा इतनी तीव्र थी कि सरपट दौड़ती बस को हम हवाई जहाज बना देना चाहते थे. महज आधा-पौन घंटे या घंटेभर की यात्रा के बाद बस ने भिठ्ठामोड़ बस स्टैंड का स्पर्श किया. ड्राइवर के ब्रेक पर पैर देने से पहले हम सीट छोड़ चुके थे. ठीक-ठीक याद नहीं, लेकिन बस से उतरने वाली सवारियों में कम से कम हम तीनों भाई, बहुत पिछड़े नहीं थे, यह दावा तो किया ही जा सकता है.

भिठ्ठामोड़ से महज 5 किलोमीटर दूर है नेपाल का जलेश्वर. यहां एक शिव मंदिर है. मंदिर के गर्भगृह में जाएं तो शिवलिंग आपको जल में डूबा हुआ दिखेगा. मान्यता है कि जल में प्लावित शिवलिंग की वजह से ही इस स्थान का नाम जलेश्वर पड़ा. जनकपुर जाने वाले यात्रियों में से कई श्रद्धालु जलेश्वर महादेव का दर्शन कर ही जनकपुर जाते हैं, हालांकि यह स्थानीय लोगों के ज्यादा करीब है. बहरहाल, भिठ्ठामोड़ से जलेश्वर के बीच  भारत-नेपाल की सीमा चौकी है. आम यात्रियों से सामान्य पूछताछ भी नहीं होती, हां आपके पास अतिरिक्त या भारी-भरकम सामान या कुछ संदिग्ध वस्तु दिख जाए, तो बगैर पूछताछ और छानबीन के बॉर्डर क्रॉस करना मुश्किल है. पर्यटकों और आम लोगों को पहचानना, सुरक्षाबल के जवानों को बखूबी आता है. हमें अपने पहले जनकपुर यात्रा या बाद के वर्षों में कई बार उस रास्ते गुजरने पर भी कभी नहीं रोका गया, यह भारत की तरफ से तैनात एसएसबी और नेपाल प्रहरी के जवानों की तीक्ष्ण और सूक्ष्म नजरिये की परख को ही बताता है.

एक बात और याद करने लायक है, हमारी पहली जनकपुर यात्रा तक नेपाल पूर्ण रूप से लोकतंत्रात्मक देश में नहीं बदला था. वहां नेपाल नरेश का ही शासन था. इसलिए जलेश्वर से जनकपुर तक की यात्रा का एक नियम बड़ा विशिष्ट या कह लें कि रोचक है. जलेश्वर से जनकपुर महज 29-30 किलोमीटर दूर है. इतनी दूरी कोई भी बस ज्यादा से ज्यादा आधे-पौने घंटे में तय कर सकती है. लेकिन नेपाल नरेश के बनाए नियमों के मुताबिक इस दूरी को ठीक एक घंटे यानी 60 मिनट में पूरा करने की अनिवार्यता लागू थी. बस नियत समय से चलेगी, 60 मिनट में ही पहुंचेगी, रास्ते में प्रहरी-दल उसकी रफ्तार की जांच कर सकता है, आम भारतीय पर्यटकों को ऐसा अनुभव, खासकर नेपाल जाने वालों को शायद ही होता था, इसलिए जनकपुर जाने के बीच के रास्ते में ये बातें हास्यबोध पैदा करती थीं. ये अलग बात है कि बस ड्राइवरों ने इस नियम को एक 'तोड़' ढूंढ निकाला था..., वे जलेश्वर बस अड्डे से निकल कुछ दूर आगे चलकर बस रोक देते थे. 15-20 मिनट की ब्रेक के बाद बस हवा से बातें करने लगती थीं. कारण पूछिए तो जवाब नहीं मिलता था, सवारियां भी इस रफ्तार बढ़ाने वाली जुगाड़ से खुश ही होते थे.

जनकपुर धाम तक अब ब्रॉड गेज की ट्रेन पहुंच गई है. (फोटो साभार- Janakpurdham:FB Page)


आखिरकार, महज दो-ढाई घंटे की यात्रा के बाद हम जनक-जननी के मायके पहुंच गए. पहला उद्देश्य धर्मशाला की तलाश थी, जो बहुत ही आसानी से मिल गई. फिर जानकी मंदिर जाना था, लेकिन उससे पहले 1930 के दशक में स्वदेशी-बिलेंती प्रकरण के दौरान जो लोग, स्वदेश नहीं लौटे, ऐसे कुछ हमारे परिजन जनकपुर में ही थे. इसलिए जानकी मंदिर से पहले उन लोगों से मुलाकात की चाह थी. अच्छा ये रहा कि पता चला कि जानकी मंदिर के इर्द-गिर्द ही वे लोग किसी मोहल्ले में रहते हैं, तो उन तक वाया जानकी मंदिर पहुंचना आसान हो गया. जहां तक याद है, दोपहर बाद हम लोग जनकपुर के उस भव्य जानकी मंदिर परिसर में पहुंच गए. आज वहां काफी हलचल रहती है, 90 के दशक में विशिष्ट अवसरों पर ही भीड़ हुआ करती थी, इसलिए हम जब पहुंचे थे, मंदिर परिसर पूरा शांत और रमणीक लग रहा था. आप घंटों तक वहां बैठे रह सकते थे. खासियत यह भी थी कि चप्पल-जूते कहीं भी उतार दें, कोई ले नहीं जाता था. (बाद के वर्षों में ऐसी स्थिति नहीं रह गई.) 

हम भी काफी देर तक वहां रहे. जानकी मंदिर परिसर से सटकर बने विवाह मंडप की सैर हमने बाद के वर्षों में की थी, उससे पहले 'हीरा बाबू' के यहां गए, जो उस 'स्वदेशी-बिलेंती' प्रकरण की नॉस्टैल्जिया थे. वहां जाकर, उनसे मिलकर हमें भी अच्छा लगा था. हम भाइयों के लिए पहली जनकपुर यात्रा, अन्य पर्यटन स्थलों की तरह नहीं थी. वहां के बाजारों से कुछ खरीदने की चाह नहीं थी, अलबत्ता भारतीय रुपये के मुकाबले नेपाली मुद्रा, जिसमें 60 पैसे का अंतर होता है, हमें दुकानों में बस अपनी राजकीय मुद्रा के 'बड़े' होने का भान होने का आनंद अच्छा लगता था. 10 रुपये देकर नेपाली राजा की चित्रों वाले 16 रुपए हाथ में आते ही, नेपाल के अभिभावक देश से आने का भाव हमें गौरव से भर देता था. मन में यह निश्चिंतता भी आ गई थी कि सीता के पास रहने वाले आज उनके मायके तक भी पहुंच ही गए..., अब जनकपुर दूर नहीं रह गया था.