दोस्तो, कुछ दिन पहले या कहें माचॆ में मैंने पंचायत चुनाव लड़ने की सोची। मूड बन चुका था, सो नौकरी से इस्तीफा देने का मन बना लिया। मगर दोस्तों ने कहा, छुट्टी ले लीजिए। बाद में कह दीजिएगा, बीमार पड़ गया था। मैं उधेड़बुन में पड़ गया। संपादक स्तर के एक या कहें कई मित्रों और सहयोगियों से बात की। उनकी भी राय यही थी कि छुट्टी लेकर ही लोकतंत्र के पहले पायदान पर उतरा जाए।
बहरहाल, मैंने छुट्टी की अर्जी दे दी। संपादक से सहमति भी ले ली। दोस्तों ने मेरा विदाई समारोह आयोजित किया, धमाकेदार पार्टी दी। एक ने तो हद कर दी। जैसे मैं फिर कभी मिलूंगा ही नहीं, इस भावना से गिफ्ट भी दे दिया। पार्टी में पूरा दफ्तर आया था। राजीव ( मेरे डेस्क का सहयोगी और रांची आने के बाद मिला मित्र) ने पार्टी अरेंज कर कमाल कर दिया।
मैं गांव के लिए निकल चुका था। गांव में मेरे आने की आहट मेरे संबंधियों से ज्यादा चुनाव में मेरी दिलचस्पी में ॥दिलचस्पी.. लेने वालों को लग चुकी थी। मानो शतरंज की बिसात पर नए मोहरे की आहट हो। लोग-बाग मुझसे मिलते कम थे, सवाल ज्यादा पूछते थे। यहां तक कि बड़े-बुजुर्ग भी मुझे देखते ही सवाल दाग उठते थे, नौकरी छोड़ के चुनाव लड़ोगे? उनके सवाल मुझे बेधते कम, अटपटे ज्यादा लगते, क्योंकि यह समझना समझ से परे था कि वे नौकरी छोड़ने पर सवाल कर रहे हैं या उन्हें मेरे आने पर ऐतराज है। महज हफ्ते भर में मैं ऐसे सवालों का जवाब देने का आदी हो चला था। मैं कहता, पत्रकार हूं, नौकरी तो रखी हुई है मेरे लिए। वे ताज्जुब में पड़ जाते। जब कुछ न सूझता तो मेरे पिता या मेरे भाइयों से जवाब तलाशने की कोशिश करते। उन्हें संतुष्टिपूर्ण जवाब मिलता, अभी छुट्टी लेकर आया है, हार कर फिर नौकरी करने लगेगा। मुझे ऐसे सवालों के कई मायनों का शुरुआत में अंदाज नहीं था, मगर कुछ ही दिनों में पता चल गया कि इसके मायने क्या-क्या लगाए जा सकते हैं। किसी तरह मैंने पीछा छुड़ाया और चुनावी मुहिम की शुरुआत की।
प्रचार अभियान पूरे दो माह चला। प्रकट रूप में और अ-प्रकट रूप में। गुप-चुप तौर पर और टोलों और सरकारी दफ्तरों में चिंघाड़-चिंघाड़कर। मैं कुछ भी करता, वो लोगों के लिए सूचना बनती। लोग मुझे हल्के में नहीं ले रहे थे। कुछ को डर था ये गांव आया है, जरूर कुछ न कुछ करेगा। कुछ पुराने तजुर्बेकार लोगों की राय सामने आती थी, इसे मौका दिया जाए, कहीं कुछ कर गया तो। मेरा कोई विरोधी तो था नहीं, सभी अपने थे। यह अलग बात थी कि चुनाव के दौरान कोई साथ चलने का ..खतरा.. नहीं उठाता था। डर था, कहीं उसका या उसके किसी का या फिर किसी और का वोट बैंक न बिगड़ जाए। मेरे साथ मेरे दो भाई थे। एक सगा, दूसरा चचेरा। सगा भाई घर पर बैठकर चुनाव मैनेजमेंट सेक्शन संभालता था। चचेरा भाई साथ चलकर और कभी-कभार अकेले में भी लॉबिंग किया करता था। बीच-बीच में रांची और कई अन्य जगहों से फोन आते थे, मैं शुरुआती रुझानों से उत्साहित होकर उन्हें बताता था, भई जीत तय है।
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मंगलवार, 2 अगस्त 2011
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