एक ----------
एक बिजनेसमैन अपने कर्मचारियों के हित में ऑफिस के बाहर लगा शराब का ठेका हटवा देता है। उसकी सोच थी कि उसके कर्मचारी काम के बाद दारू न पियें ताकि ऑफिस के लिए कोई हंगामा खड़ा न हो। इस काम में वह अपने शीर्षस्थ कर्मचारियों की मदद लेता है, जो प्रशासनिक स्तर पर उसका यह काम कर सकें। उसने वहीँ पास में खड़ी की गयी चाय की दुकान पर अपना पैंतरा नहीं आजमाया।
दो -----------
एक बिजनेसमैन के दफ्तर के पीछे एक खोमचे वाला उसके ठेले के आगे रोज़ परेड करने वाले पुलिसवालों को तहबाजारी देने को मजबूर है। उसे पता है, बिजनेसमैन के यहाँ काम करने वाले कर्मचारी जो उसके यहाँ कभी-कभार पेट पूजा करने पहुँचते हैं, उसे इस अन्याय से छुटकारा नहीं दिला सकते।
रविवार, 18 अप्रैल 2010
मंगलवार, 13 अप्रैल 2010
नया शहर, नए लोग, नई जिंदगी
सड़क पर चलते रहिए, लोग न आपको देखेंगे न आपसे टकराएंगे. अरे भई फुटपाथ है न. सड़क के दोनों किनारों पर. अलग-अलग. आप टकरा ही नहीं सकते. गाड़ियां सरॆरॆरॆ से निकल जाएंगी. हॉनॆ ज्यादा नहीं बजातीं. लगता है लंदन बनने की होड़ है. पंजाबी आती है तो ठीक, हिंदी भी दौड़ेगी. और यदि फर्राटे की अंग्रेजी आती है, तब तो समझिए, रेहड़ी वाला भी आपको आसानी से डील करेगा.
वो हमारे रूपेश भाई सही कहते थे. और सब तो ठीक है भई, लेकिन चंडीगढ़ में बिना दस पांच लोगों से बतियाए काम कैसे चलेगा. पहले भी सही लगता था, अब फील कर रहा हूं. हां, बहुत दिनों बाद नाटक से एक बार फिर जुड़ाव हो गया है, बलिहारी है, वरना खुद से ही परेशान इस शहर में लोगों के बीच अनजान बनकर लोगों को रहने की आदत हो गई है.
मैं मन को बहलाने के लिए दो-एक दिन पर अपने एक रिश्तेदार के यहां शहर से सटे मोहाली घूम आता हूं. वहां, दु-टूक मैथिली (मेरी मातृभाषा) हो जाती है. इसका कारण साफ है. ऐसा नहीं है कि मन चंडीगढ़ में नहीं बहल सकता. दरअसल जिन चार मित्रों के साथ मैं रहता हूं, उनमें से एक रिपोर्टर है और दूसरा फोटोग्राफर. दोनों दिन में निकल जाते हैं. एक बच जाते थे. उनका भी ठिकाना बदल गया है. अपन अब अकेले गर्मी की बलैयां लेते रहते हैं.
दरअसल चंडीगढ़ की फितरत हो गई है कि सब कुछ सिस्टेमेटिक ही रहे, दिखे, हो......और बने भी. इसलिए खासकर यूपी और बिहार से आने वाले नॉन सिस्टेमेटिक टाइप के लोगों को शुरुआती दिनों में यहां थोड़ी कोफ्त होती है. ऐसा नहीं है कि यहां भी सब कुछ सिस्टेमेटिक है, यहां के लोग भी भारतवासी ही हैं, लेकिन ढेर सारी सड़कें और गलियां बना देने से थोड़ा रीत-पन हावी हो गया है. हालांकि लगभग दस लाख की आबादी पर आठ लाख की तादाद में दिखने वाली गाड़ियां, इस स्थिति को थोड़ी-बहुत झुठलाती सी दिखती हैं, लेकिन मशीनों की वो औकात कहां जो इंसानों की तरह धक्कापेल कर सकें.
खैर, अभी नया हूं. कुछ दिनों मे सीख जाऊंगा यहां पर भी रहना. अभी तो बहुत दिनों से ब्लॉग पर भड़ास नहीं निकाली थी सो निकाल दी. कोशिश में हूं कि इस शहर को भी वैसा ही बनाकर रहने लगूं, जिनमें कि अब तक रहता आया हूं.
वो हमारे रूपेश भाई सही कहते थे. और सब तो ठीक है भई, लेकिन चंडीगढ़ में बिना दस पांच लोगों से बतियाए काम कैसे चलेगा. पहले भी सही लगता था, अब फील कर रहा हूं. हां, बहुत दिनों बाद नाटक से एक बार फिर जुड़ाव हो गया है, बलिहारी है, वरना खुद से ही परेशान इस शहर में लोगों के बीच अनजान बनकर लोगों को रहने की आदत हो गई है.
मैं मन को बहलाने के लिए दो-एक दिन पर अपने एक रिश्तेदार के यहां शहर से सटे मोहाली घूम आता हूं. वहां, दु-टूक मैथिली (मेरी मातृभाषा) हो जाती है. इसका कारण साफ है. ऐसा नहीं है कि मन चंडीगढ़ में नहीं बहल सकता. दरअसल जिन चार मित्रों के साथ मैं रहता हूं, उनमें से एक रिपोर्टर है और दूसरा फोटोग्राफर. दोनों दिन में निकल जाते हैं. एक बच जाते थे. उनका भी ठिकाना बदल गया है. अपन अब अकेले गर्मी की बलैयां लेते रहते हैं.
दरअसल चंडीगढ़ की फितरत हो गई है कि सब कुछ सिस्टेमेटिक ही रहे, दिखे, हो......और बने भी. इसलिए खासकर यूपी और बिहार से आने वाले नॉन सिस्टेमेटिक टाइप के लोगों को शुरुआती दिनों में यहां थोड़ी कोफ्त होती है. ऐसा नहीं है कि यहां भी सब कुछ सिस्टेमेटिक है, यहां के लोग भी भारतवासी ही हैं, लेकिन ढेर सारी सड़कें और गलियां बना देने से थोड़ा रीत-पन हावी हो गया है. हालांकि लगभग दस लाख की आबादी पर आठ लाख की तादाद में दिखने वाली गाड़ियां, इस स्थिति को थोड़ी-बहुत झुठलाती सी दिखती हैं, लेकिन मशीनों की वो औकात कहां जो इंसानों की तरह धक्कापेल कर सकें.
खैर, अभी नया हूं. कुछ दिनों मे सीख जाऊंगा यहां पर भी रहना. अभी तो बहुत दिनों से ब्लॉग पर भड़ास नहीं निकाली थी सो निकाल दी. कोशिश में हूं कि इस शहर को भी वैसा ही बनाकर रहने लगूं, जिनमें कि अब तक रहता आया हूं.
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