सोमवार, 27 अगस्त 2007

खुश होने के बहाने

बहाने बनाना हमारी फितरत में होता है. मां-बाप के कोप से बचने को शायद ही कोई ऐसा हो जिसने बहाने न बनाए हों. ये आदत बचपने से निकलकर जवानी और कह लें तो ताउम्र बनी रहे, इसकी कोशिश सभी करते हैं. जवानी में बीवी से बहाने बनाए बिना तो संभवतः काम ही नहीं चल सकता. दफ्तर से देर से आने में, चाय पीने के बहाने दोस्तों से मिलने में, दोस्तों से मिलने के लिए दफ्तर बार-बार जाने में और ऐसे कई मुआमले हैं जहां बहाने बेशक मारक तौर पर काम करते हैं।
अभी हाल ही में मेरी बीवी घर गई. कहा ये था कि जल्दी आएगी. मैंने सोचा ''पहली बार बीवी घर जा रही है शायद मुझे रहने, खाने या 'पीने' में दिक्कत होगी. लेकिन दो ही दिनों में महसूस हुआ कि ज्यादा एनेर्जेटिक हो रहा हूँ। काफी दिनों से जो पढ़ाई छूट गयी थी उसे पुनः चालू कर लिया. यहाँ तक कि रोजाना दफ्तर से आकर खाना खाने कि नौबत या दबाव भी थोड़ी कम हो चली. ख़ूब मस्ती की और एक दिन तो जाम भी छल्काए. वो रात में तबियत गड़बड़ा गयी वर्ना पकड़े भी नही जाते. खैर, दो दिनों बाद बीवी का फोन आया. मैं राहत से था, ये कह दिया, वो भी ठीक थी ये जान लिया. मुसीबत तब आयी जब उसने ये पूछा कि 'मैं आ जाऊं'. मैं चाहते हुये भी उसे जवाब देने से हिचक रहा था. वो थी कि चढ़ी ही जा रही थी. मैंने कहा, राखी नजदीक है, भाइयों को कहॉ तड़पता हुआ छोडोगी, 29 के बाद ही आना. मगर बीवी भी निकली चालाक. उसे लग गया कि ये बहानेबाजी कर रहा है. फौरन ताड़ गई. उसके बाद फोन भी नहीं किया और राखी से दस ही दिन पहले आ धमकी. मैं क्या करता. बीवी ही थी घर में रखने का सामाजिक फरमान सालों पहले जारी हो ही चुका है. कुछ न बोला. बाद के दिनों में बीवी को बता ही दिया कि तुम नहीं रहती हो तो मैं सुकून से रहता हूं. वह कलि-युगी है. न रोयी-धोयी और न बाल ही झटके. कहा, मैं भी बहुत मजे में थी. फिर मौका दे रही हूं. राखी मैं दिल्ली में मनाउंगी, पहुंचा आना. सोचिए जरा, बीवी की बात मैं टाल सकता था....

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