मैदान के मुकाबले पहाड़ हमेशा से लोगों को लुभाते रहे हैं. पहाड़ों की ऊंचाई, इनका उबड़-खाबड़पन और उससे कहीं अधिक संभवतः पृथ्वी पर मैदान से ज्यादा प्राचीन होने की वजह से इंसान के भीतर पहाड़ को छूने की ललक रही है. ऐसे पहाड़ के बीच अगर धर्म का स्थान ढूंढ लिया जाए, तो आस्थावान लोगों के लिए वह जगह और भी पवित्र तथा पर्यटन के माकूल जगह बन जाती है. ऐसे ही जगहों में से एक है देवघर. महज 2 दशक पहले बिहार से अलग होकर बने झारखंड राज्य का बाबाधाम, जिसका आधिकारिक नाम देवघर है, देश में भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक बाबा वैद्यनाथ का घर है. जैसा कि विदित है कि यह महादेव के चुनिंदा 12 स्थलों में से एक है, इसलिए भारत के पूर्वी इलाके में इसका महत्व भी विशिष्ट हो जाता है. खास कर यदि हम बिहार और झारखंड की बात करें, तो यह लाखों शिवभक्तों की आस्था का एकमात्र केंद्र है.
महादेव मंदिर देवघर. फोटो साभार- deoghar.nic.in |
अलबत्ता देवघर में स्थित महादेव को बाबा गरीबनाथ भी कहा जाता है. देश में मौजूद अन्य 11 ज्योतिर्लिंगों के मुकाबले देखें तो यह गुजरात के सोमनाथ की तरह विदेशी आक्रांता की वजह से चर्चित नहीं है. हिमालय की गोद में स्थित केदारनाथ की तरह बर्फ की चोटियों से ढंका होने के कारण अत्यंत खास भी नहीं हो जाता है. दावा तो नहीं कर सकता, लेकिन हर साल लाखों की संख्या में आने वाले शिवभक्त, बाबा वैद्यनाथ को 'आम जनमानस का सबसे खास देव' जरूर बना चुके हैं. सावन के महीने में यहां जितने भक्त आते हैं, किसी एक समय में महादेव के किसी रूप को देखने शायद ही इतनी तादाद में भक्त जमा होते हों! सावन के अलावा भी यहां आने वालों की संख्या आपको चकित कर सकती है. कुछ ऐसा ही समय वर्ष 1990 का भी था, जब हम लोग, यानी हमारा पूरा परिवार और पूरा ननिहाल, देवघर में एक खास आयोजन के लिए जुटे थे.
देवघर जाना बहुत ही आसान है. उन लोगों के लिए भी, जो यहां से लगभग 100 किलोमीटर दूर सुल्तानगंज में उत्तर वाहिनी गंगा से जल लेकर पैदल ही बाबा वैद्यनाथ पर चढ़ाने आते हैं. और उनके लिए भी जो ट्रेन, बस, हवाई जहाज या फिर निजी वाहन से आना चाहते हैं. देश के मानचित्र के आधार पर गौर करें तो यह दिल्ली-कोलकाता मुख्य रेलमार्ग पर जसीडीह स्टेशन के करीब है. बिहार, बंगाल और झारखंड के निकटवर्ती हवाई अड्डे से भी इसकी दूरी 300 किलोमीटर के आसपास ही है. वर्ष 1990 में हम रेलमार्ग से देवघर पहुंचे थे. मुजफ्फरपुर जंक्शन से शाम के समय रवाना होने वाली ट्रेन छपरा-टाटा, जो उस समय मुजफ्फरपुर से ही चला करती थी, उसने हम लोगों को रातभर के सफर के बाद देवघर पहुंचा दिया था. नितांत पारिवारिक आयोजन के लिए यूं तो गांव सबसे मुफीद होता है, लेकिन बिहार-झारखंड में रहने वाले लोग कई बार देवताओं को सामाजिक आचार-व्यवहार का सहभागी बना लेते हैं, सन् 90 की यह यात्रा ऐसे ही एक पारिवारिक कार्यक्रम की थी.
यूं तो हम लोग पारिवारिक कार्यक्रम के लिए ही आए थे, लेकिन देवघर पहली बार पहुंचे थे. बाबाधाम पहुंचकर लोग आज भी होटल की जगह, धर्मशाला को तवज्जो देते हैं. कारण कोई खास नहीं, बल्कि मंदिर के इर्द-गिर्द रहने की लालसा होती है, ताकि ज्यादा से ज्यादा समय महादेव के साथ गुजारा जा सके. कालक्रमेण, होटलों को महत्व देने का चलन बढ़ा जरूर है, लेकिन आज भी बाबाधाम की धर्मशालाओं का जोड़ नहीं! ऐसी ही किसी धर्मशाला में हमारा डेरा जमा. आयोजन का समय नियत था, इंतजाम पूरे थे, बस आनंद की शुरुआत होनी थी. देवघर में बनारस की तरह गलियां नहीं हैं, लेकिन प्रातः स्नान के बाद बाबा का दर्शन करने के लिए जो रास्ता है, वह आम धार्मिक स्थलों की तरह संकरा ही है. शिवगंगा, वह बड़ा तालाब जहां सुबह-सवेरे स्नान के बाद लोग बाबा का दर्शन करने पहुंचते हैं, से बाबा मंदिर तक का रास्ता फूल, बेलपत्र, पेड़े व अणाची दाने की खुशबुओं को महसूस करते हुए आप पूरा करते हैं. रास्ते में कई-कई कंठों से उच्चारित हो रही बोल-बम की ध्वनि आपको इस धर्मपारायण देश का महत्व बताती चलती है. सावन के महीने से इतर, मंदिर पहुंचकर दर्शन करना यहां कठिन नहीं है. इसलिए घंटेभर के भीतर आपका दर्शन-पूजन संबंधी नित्य-कृत्य पूरा हो जाता है. इसके बाद शुरू होती है देवघर की यात्रा.
यूं तो बाबाधाम में पर्यटन की दृष्टि से शायद ही कोई आता हो, यहां तो बाबा का दर्शन ही एकमात्र उद्देश्य होता है, लेकिन ऐसा नहीं है कि पर्यटक नहीं आते. देवघर में कई स्थान हैं, जो वस्तुतः धार्मिक ही हैं, लेकिन तपोवन या नौलखा मंदिर जैसे स्थानों पर दर्शनार्थ जाने वाले पर्यटकों की संख्या में कम ही नजर आते हैं. हम भी बाबा मंदिर तक ही दर्शनार्थी रहे, तपोवन या अन्य स्थलों की खूबसूरती के आगे 'टूरिस्ट' बन ही गए थे. वर्षों पहले 9 लाख रुपए में बने नौलखा मंदिर की शांति और रमणीयता हो या तपोवन पहाड़ की गुफाओं-कंदराओं का सौंदर्य, आपको बरबस ही अपनी ओर खींचता है. तपोवन की गुफाओं के आगे बैठे वानरों का दल, बच्चों के लिए रोमांचकारी रहता है. इन्हीं स्थलों को हम सभी पैदल-पैदल निहारते जा रहे थे. बाबा मंदिर से तपोवन पहाड़ की दूरी पैदल नहीं पूरी की जा सकती, लेकिन पहाड़ पर पहुंच जाने के बाद इसे पैरों से नापना सुख देता है.
नौलखा मंदिर, बाबाधाम. फोटो साभार- deoghar.nic.in |
देवघर में पैदल-पैदल ही घूमने के पीछे एक और बड़ा कारण था, जो रोचक है. दरअसल, मम्मी और बाबूजी को घूमने के दौरान किसी भी तरह की खरीदारी से सख्त ऐतराज रहा है, रहता है. हम तीन भाई, इस विचार से सहमत ही हों, यह कतई जरूरी नहीं, लेकिन उस वक्त और कोई चारा भी नहीं था. यूं भी मंदिर के आसपास के अन्य सभी स्थल बहुत दूर-दूर पर नहीं हैं, इसलिए पैदल घूमने में ऐतराज भी नहीं था. लेकिन इसमें खास बात थी मम्मी की वह सलाह, जिसमें उन्होंने कहा था कि 'पहाड़ पर घूमोगे तो भूख ज्यादा लगेगी, कई-कई बार खा सकते हो'. खानें में भी क्या, चूड़ा-दही और पेड़े! अब बालसुलभ लालच कह लें या मम्मी की सलाह, बार-बार पेड़े खाने की चाहत में हम पूरे बाबाधाम को पैदल नापने को तैयार थे. इसके पीछे का वैज्ञानिक कारण बाद में समझ आया कि मैदानी इलाकों में रहने वाले पहाड़ी क्षेत्र की भौगौलिक बनावट के कारण पैदल चलने में जल्दी थक जाते हैं. कुछ हद तक पानी की स्वच्छता का भी मामला आता है, जो सुस्वादु भोजन को जल्दी पचाने में मददगार होता है.
1990 के बाद भी हम कई बार देवघर गए हैं. कहीं बेहतर साधन और संसाधनों के साथ. आज जबकि उस स्थान पर यात्रा और पर्यटन के बेहतरीन संसाधन मौजूद हैं, 30 साल पुरानी यात्रा को भुलाना नामुमकिन है. यहां तक कि उस पारिवारिक आयोजन से बढ़कर हम लोगों को पैदल-भ्रमण ज्यादा नॉस्टैल्जिक लगता है. आज भी कोशिश यही रहती है कि अगर देवघर जाने का मौका मिले तो मंदिर के आसपास ही रहा जाए. फूल, बेलपत्र, पेड़े और अणाची दाने की खुशबू के करीब रहें....और बाद के वर्षों में तो वहां पराठे भी मिलने लगे हैं. यहां तक कि देवघर के करीब ही स्थित बासुकीनाथ में अब रोप-वे भी है, जहां से पहाड़ का विहंगवालोकन संभव है. लेकिन जो तस्वीर एक बार घर कर गई है, उसे फ्रेम से निकालने को कभी जी ही नहीं चाहता!
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