शनिवार, 22 सितंबर 2007
रात की चाय
अच्छा लगता है न शीषॆक पढ़कर. रात की चाय। जीभें लपलपा उठती हैं और मन बरबस उस चाय वाले के यहां चहल-कदमी करने लगता है, जहां कल रात चाय पी थी. हममें से कितनों को ये मौका रोजाना मयस्सर होता है, कहा नहीं जा सकता. मेरी इच्छा हमेशा रहती है, मौके कभी-कभार ही मिल पाते हैं. अलबत्ता मेरे दोस्तों को मजे लेने का मौका जरूर दे देती है मेरी रात की चाय.
रात में चाय पीना यूं ही शोशेबाजी नहीं है। इसके लिए बाजाप्ता जुगाड़ लगानी पड़ती है. मैं और मेरे दोस्तों के पास इसका छोटा सा ही सही, एक इतिहास है. हां इतिहास ही कहेंगे. भोपाल का भैयालाल कहने को तो सात नंबर स्टाप पर चाय का ठेला भर लगाता था, लेकिन वो हम. चयक्करों की नींव को और ज्यादा सीमेंटेड कर रहा था. हालांकि हममें से बहुत ऐसे भी थे जिन्होंने ये आदत भैयालाल के यहां नहीं लगाई थी. उनकी पुरानी रही होगी. भैयालाल के न होने पर रात में हम अक्सर हबीबगंज स्टेशन के सामने ठिकाना बनाया करते थे. उस समय उन पुलिस वालों को देखकर हममें से बहुतेरे टोंट-बाजी किया करते थे. कारण रहता था. कुछ तो प्रेस से लौटे होते थे और पुलिस की कारिस्तानियों से थोड़ा या ज्यादा परिचित हुआ करते थे और कुछ हम जैसे जो उनको सुन-सुनकर ऐसी धांसू जानकारियां रखते थे. अव्वल हममें बड़े पत्रकार होने का न सही बनने का जुनून तो रहा ही करता था.
बहरहाल, चाय पीने की ये दास्तां हम और हमारे दोस्तों के साथ बढ़ती चली आई। नौकरी मिली तो यह और बढ़ गई। अब तो कमाने का भी शानदार भ्रम था। सो एकबारगी हम गाजियाबाद से मेरठ तक चले आए चाय पीने के नाम पर। कुछ और काम तो रहा ही होगा। नाम चाय का हुआ। मुझे खुशी हुई। बाद के दिनों में ये चाय-चक्र काफी गंभीर होता गया. कई बार पीयूष को सोते से उठाकर हम दो किलोमीटर दूर गाजियाबाद स्टेशन ले जाया करते थे ताकि चाय पीएं. अच्छा चाय अकेले पीने में मजा नहीं देता. दो-चार लोग हों तो हर-एक सिप में उसके आनंद का पारावार नहीं रहता. अब हम गाजियाबाद में चूंकि तीन ही लोग थे. मैं और रवींद्र भाई आफिस से काफी थककर (हंस सकते हैं आप) लौटते थे. इसीलिए चाय जरूरी होती थी. पीयूष दिन के छह घंटे की नौकरी और चार घंटे की रेल-यात्रा से थककर लौटता तो था, मगर कुछ देर सो लेने से उसकी थकान दूर हो जाती थी, ऐसा रवींद्र भाई और मेरा मानना हुआ करता था. अब ऐसे में चाय तो जरूरी ही होती होगी न, क्यों...
जारी
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