शनिवार, 1 मार्च 2008

हाकी का दिल चुराया


हाकी का दिल चुरा लिया. कुछ अटपटी बात है न. खैर, हम बताते हैं कि बात आखिर है क्या. दरअसल मेरठ में पिछले दिनों एक राष्ट्रीय स्तर के हाकी टूर्नामेंट का समापन हुआ. उसी में बैंड वाले ये गाना बजा रहे थे. बैंड वालों को अक्सर पता होता है कि उन्हें बजाना क्या है. अमूमन लोग-बाग उन्हें बता भी दिया करते हैं कि फलां धुन छेड़ना तो जरा...आदि-आदि. पर मुक्तसर में ये कि बैंड वाले रस्मों की नब्ज जानते हैं, बीमारी दिखी नहीं कि दवा पिला के ही छोड़ेंगे. खैर, बात हो रही थी मेरठ और वहां हुई हॉकी की.

मेरठ से खेलों की पुरानी यारी है. खेल यहां न हों तो पता चले कि इस पट्टी के लोगों के पास गपियाने का एक ऐंगिल ही कम पड़ जाए. तो बात हो रही थी हॉकी टूर्नामेंट में बैंड पार्टी की. बैंड वाले जगह और मूड भांपने के उस्ताद होते हैं. पर बात खेल की हो तो उनका दिमाग कम चलता है. बड़े शहरों (यों मेरठ छोटा शहर नहीं है, पर यहां नहीं) में तो बैंड वालों के पास आप्शन होता है. उनके बैंड वाले दुकान के आजू-बाजू रेडियो मैकेनिकों के वर्कशॉप होते हैं जहां जब तक शटर खुला हो गाने बजते हैं. इससे बैंड वालों को रियाज करने का वक्त मिल जाता है. पर मेरठ जैसे छोटे शहरों में जहां सिर्फ शादी-ब्याह या ऐसे ही किसी त्योहारों पर बैंड वालों को बुलाने का चलन है, वहां इन छाती-फाड़ मनोरंजुओं (नया शब्द लगे तो मनोरंजन करने वाले पढ़िएगा) के जरूरी संसाधन सीमित होते हैं. इसलिए गाने रिपीट होते हैं और लोग बोलते हैं कि चवन्नी छाप बैंड उठा लाया है बबुआ. तो मेरठ में जहां हॉकी स्टिक के सहारे गोलपोस्ट में खड़े गोली को गच्चा दिया जाने वाला खेल खेला जा रहा था वहां इन बैंड वालों की समझ में ही नहीं आ रहा था कि बजाएं तो बजाएं क्या. बड़ी पसोपेश के बाद उन्होंने एक तान छेड़ी, ...दिल चुरा लिया, तूने मुझे प्यार करके, इकरार करके, दिल चुरा लिया.... आसपास के लोग हैरत में उनकी ओर ताकने लगे. बैंड मास्टर समझ गया कि गड़बड़ है. तुरत अमल हुआ, और धुन चेंज. ...आज मेरे यार की शादी है..., लोग हक्का-बक्का. बैंड मास्टर अपनी धुन का और फिल्में देखने का पक्का था. तीसरा दांव लगाया. ...ये देश है वीर जवानों का, अलबेलों का, मस्तानों का, इस देश का यारों...पें,पें,पें.... इतनी देर में लोग भी समझ चुके थे कि बैंड वाले मौजूं धुन की कमी से जूझ रहे हैं. लोगों ने कान फेर लिए, बैंड वालों को राहत मिली, उन्होंने अपनी तुरहियों को विराम दे दिया, हॉकी खिलाड़ी जो अब तक अपने रेफरियों की आवाज और इस बैंड में फर्क नहीं कर पा रहे थे, उन्हें भी लगा कि कुछ है जो छूट रहा है. खैर बैंड बजना बंद हो गया. सभी ने राहत की सांस ली. मगर टूर्नामेंट के आयोजक आम आयोजकों की तरह ही थे सो उन्हें लगा कि हॉकी है, जब खेली भी जा रही है तो बैंड क्यों न बजेगा. लेकिन बैंड वालों की लाचारी से भी वे नावाकिफ नहीं थे सो उन्होंने रिकार्ड चला दिया. मैं क्या लिखूं, आप समझ ही गए होंगे कि आजकल क्रिकेट से लेकर हॉकी या किसी भी खेल में कौन सा 'कबीरा' राग बजाया जाता है, सो बजने लगा. खिलाड़ी भी खुश हो गए थे सो एक टीम ने गोल दाग दी, दर्शक भी खुश हो गए. मैदान पर फील-गुड हो गया.

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