बुधवार, 12 मार्च 2008
तलब
मौके यूं ही नहीं आते. उन्हें लाया भी जाता है. या कहें कि बरबस वो आपके सामने आ जाते हैं. अब यह तय आप पर है कि उसे किस तरह और कैसे भुनाएं. दरअसल इतनी देर तक उंगलियां टिप-टिपाने का मतलब ज्यादा गंभीर नहीं है. यह वस्तुतः मिठाई खाने की इच्छा को जस्टिफाई करने के लिए है.
कुछ दिनों पहले मैं घर पे था. घर मतलब जहां मां-बाप हों या रहते हों, ऐसा मेरा मतलब नहीं है क्योंकि मैं अपने गांव से समझता हूं कि मैं घर पर था. खैर, मैं घर यानी मुजफ्फरपुर में था. जो वहां के हैं उन्हें पता होगा कि उस शहर से सटे एक कस्बा है रून्नी सैदपुर. सीतामढ़ी-मुजफ्फरपुर के रास्ते पर पड़ने वाला यह कस्बाई स्टॉपेज नॉन-स्टॉपेज बसों के लिए नहीं है. हां राज्य परिवहन की सभी बसें जरूर यहां ठहरती हैं. मगर इसकी खासियतों में एक तो जाना-पहचाना सा गांव बेनीपुर का होना है और दूसरा यहां मिलने वाली लजीज मिठाई बालसाही का. (बालुशाही भी पढ़ सकते हैं शुद्धता के लिए). तो पहली पहचान बेनीपुर गांव के बारे में बता दूं कि यह प्रसिद्ध साहित्यकार रामवृक्ष बेनीपुरी का गांव है. और दूसरी बालसाही जो यहां के बस अड्डे से लेकर हर चौराहे पर मिल जाती है. जाहिर है रून्नी सैदपुर से मुजफ्फरपुर की इतनी नजदीकियों के चलते बालसाही ने पहले तो बिहार के इस कहे जाने वाले महानगर को अपना शिकार बनाया और अब पूरे बिहार को करीबन. ऐसा दावा है मेरा.
तो बात जरा यूं थी कि मैं मुजफ्फरपुर में था. मेरठ से मैसेज गया कि बालसाही लेते आना. मैंने भरपूर कोशिश की जैसे कि अन्य लोग करते हैं लेकिन असफल रहा और बैरंग मेरठ लौट आया. जाहिर तौर पर मेरठियों का गुस्से में आना लाजिमी था, वो आए भी. मैं भी नैतिक रूप से उनके साथ था. सो मौका मिला. एक मित्र बनारस गए. मैंने फरमाइश कर डाली वहां से मिठाई लेते आने की. साथ में वहां पढ़ रहे अपने भाई से भी कह दिया कि कुछ मिठाई भेज देना. अब यहां बैठकर उसी की प्रतिक्षा कर रहा हूं. आएगी मिठाई तो खिलाउंगा. तब तक के लिए टाटा-टाटा................
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1 टिप्पणी:
वाह! मिठाई के नाम से मुँह में पानी आ गया।अच्छा फोटों है:)
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