गृह राज्य बिहार में रहते हुए जिस पहले पर्यटन स्थल को हमने देखा, वह चंपारण था. जी हां, वही चंपारण जिसे मोहनदास करमचंद गांधी को पहले महात्मा, बाद में राष्ट्रपिता बनाने वाली धरती के रूप में याद किया जाता है. इसी जमीन पर बापू ने देश का पहला आंदोलन किया, जिसने अंग्रेजों का ध्यान खींचा था. ये बात अलग है कि बापू का वह चंपारण आज दो अलग-अलग जिलों के रूप में जाना जाता है, पूर्वी और पश्चिमी चंपारण. बापू आज के पूर्वी चंपारण आए थे, जिसका जिला मुख्यालय मोतिहारी है. मैं जिस चंपारण के पर्यटन स्थल की बात कर रहा हूं, वह पश्चिमी चंपारण कहलाता है और इसका जिला मुख्यालय बेतिया है. इसी चंपारण में एक जगह है लौरिया. इसी लौरिया के एक चीनी मिल में हमारे नानाजी नौकरी किया करते थे.
लौरिया का अशोक स्तंभ. (फोटो साभार- बुद्धिस्टसर्किटबिहार.कॉम) |
बात 1980 के दशक की है. पश्चिमी चंपारण से सटा हुआ पूर्वी चंपारण और उससे लगा सीतामढ़ी जिला, जहां हम रहते थे. बेतिया का नाम सुना करते थे, वहां हमारे समाज की कई बेटियां बसती थीं. लौरिया नया था. नानाजी इसी लौरिया में करीबन 6-7 साल रहे. इन वर्षों के दौरान हम लोग दो या तीन बार ही लौरिया गए. उस समय बड़ी कोफ्त हुआ करती थी, जब अंतर्देशीय पत्रों से पता चलता था कि हमारी मौसियां गर्मी की छुट्टियों में मौसेरे भाइयों के साथ पूरा महीना बिताने लौरिया आती हैं. हम लोग, इन छुट्टियों का इस्तेमाल आम खाने में किया करते थे, यानी गांव जाते थे. इसलिए यह कतई संभव नहीं था कि महीनाभर लौरिया में बिताया जाए. नानाजी सन् 84-85 के आसपास इस कस्बे में शिफ्ट हुए थे. हम लोग संभवत एक साल बाद दो या बमुश्किल 3 दिनों के लिए वहां गए थे.
इतना ज्ञान नहीं था कि लौरिया जाने से पहले सामान्य ज्ञान की किताबों का अध्ययन करें कि वहां ऐतिहासिक महत्व की क्या चीजें हैं. हमारे लिए इतना ही काफी था कि हम नानाजी के पास जाएं. लिहाजा, जब ये योजना बनी कि लौरिया जाना है, खुशी का पारावार न रहा. हम तीनों ही भाई बचपन से रेलवे टाइम-टेबल देखने-पढ़ने और गुनने के आदी थे. बिहार के सीमावर्ती इलाकों में रहते हुए भी, केरल के त्रिवेंद्रम (अब तिरुअनंतपुरम) से मद्रास (अब चेन्नई) जाने वाली ट्रेनों की समय-सारणी हो या जम्मू से हावड़ा तक की दूरी नापने वाली ट्रेन, टाइम-टेबल से देश का भूगोल जानने की ललक हम तीनों में ही थी. जाहिर है सीतामढ़ी से लौरिया के 'टूर' की योजना बनते ही हमने इसके रेलमार्ग का अध्ययन शुरू कर दिया था. सीतामढ़ी से नरकटियागंज तक ट्रेन से और उसके बाद...! नरकटियागंज से लौरिया तक ट्रेन नहीं थी, हमारी जिज्ञासा चरम पर थी.
खैर, वह दिन आया, दरअसल रात आई थी जब हम लोग ट्रेन में सवार हुए. पैसेंजर ट्रेन, जो अगले लगभग 150 से 200 किलोमीटर की दूरी 7 से 8 घंटों में तय करने वाली थी, हम उसमें सवार हो चुके थे. सहयात्रियों की संख्या कम थी, इसलिए हम तीनों भाइयों को सोने की जगह मिल गई. सुबह का पौ फटा तो हम नरकटियागंज में थे. बिहार-उत्तर प्रदेश की सीमा से सटा नरकटियागंज, दरभंगा-नरकटियागंज रेलखंड का आखिरी स्टेशन था. बहुत साल के बाद यहां से आगे छतौनी के पास गंडक नदी पर जब रेल पुल बनकर तैयार हुआ, तब इस रास्ते से ट्रेनों का संचालन शुरू हुआ. बहरहाल, नरकटियागंज स्टेशन पर उतरकर दैनिक कार्यों से निवृत्त होने के बाद पता चला कि आगे की यात्रा टमटम यानी तांगे से होने वाली है. दिल बाग-बाग हो उठा.
मुनि नाम की घोड़ी वाले तांगे पर नरकटियागंज से करीबन 15 किलोमीटर दूर लौरिया का सफर शुरू हुआ. तांगेवाला प्रवीण था, वह रास्ते में उतर जाता, लेकिन मुनि सरपट भागती रहती. बीच-बीच में वह जोर की आवाज लगाता, 'हे मुनि....' और घोड़ी का ठुमकना बढ़ जाता, हम बच्चे खिलखिला उठते. आधा-पौने घंटे में हम लौरिया में थे. छोटा सा कस्बा, ज्यादा भीड़-भाड़ नहीं, चीनी मिल ही सब कुछ था, तो कॉलोनी के बाहर हमारा तांगा जा खड़ा हुआ. वहां से 100-150 मीटर की दूरी, यानी नानाजी के क्वार्टर तक हमने कितनी उत्सुकता से पूरी की, इसका अनुभव शब्दों में करना मुश्किल है. घर से बाहर घूमने जाने, नाना-मामा-मौसी और नानी (जिन्हें हम लोग मां कहते थे), उनसे मिलना हम लोगों को भाव-विह्वल कर गया.
मुश्किल से दो-तीन दिन ही हमें लौरिया में रहना था, इसलिए आसपास के इलाकों की सैर मुश्किल थी, जो कुछ लौरिया में था, वहीं जाना मुमकिन था. पता चला कि यहां नंदनगढ़ पहाड़ है, साथ ही सम्राट अशोक का स्थापित किया हुआ स्तंभ भी. मैं इसी सामान्य ज्ञान की बात कर रहा था, जिसका ज्ञान लौरिया में हमें हुआ. शाम के समय मामाजी के साथ हम लोग नंदनगढ़ पहाड़ घूमने गए. वहां पहली बार अशोक की लाट देखी. जैसा शेर अखबारों या पत्रिकाओं और रुपए पर दिखता है, उसे पाषाण रूप में देख बड़ा रोमांच हुआ. यह कहना सही होगा कि बाद के दिनों में जब कभी इससे जुड़े प्रश्न देखने को मिलते कि अशोक स्तंभ में शेर के साथ और कौन-कौन से जानवर हैं, तो हमारा मन पहले लौरिया के नंदनगढ़ पहाड़ पर जाता और वहां के चित्र को हम शब्द के रूप में सामने ला रखते थे.
लौरिया में दूसरे दिन की सुबह और रोचक होने वाली थी. शहर की मामूली सैर पर हम लोग निकले थे. बाबूजी के साथ मैं भी था. पता चला कि कोई चंद्रशेखर (भारत के पूर्व प्रधानमंत्री) आने वाले हैं. चंद्रशेखर, लौरिया क्यों आने वाले हैं, इससे जाहिर है मुझे कोई मतलब नहीं था. चूंकि लौरिया घूमने निकले ही थे, तो चंद्रशेखर क्या हम किसी को भी देखने जा सकते थे. बाबूजी के साथ चंद्रशेखर को देखने गए. रास्ते में बाबूजी ने बताया कि वह आदमी पूरे भारत की पदयात्रा कर रहा है. कन्याकुमारी से पैदल चले आ रहे व्यक्ति की कहानी भावुक करने वाली थी, इसलिए देखने की जिज्ञासा बढ़ती ही जा रही थी.
लौरिया के जिस बड़े मैदान में चंद्रशेखर आने वाले थे, वहां हम उनसे पहले पहुंच गए. यह उस समय की बात थी, जब चंद्रशेखर देशस्तर के नेता तो हो गए थे, लेकिन सत्ता से दूर थे. इसलिए माथे पर 'मुरेठा', यानी तौलिया लपेटे और घाम (पसीना) से सने चंद्रशेखर को करीब से देखना संभव था. मैंने देखा, अत्यधिक थकान से चूर धोती-कुर्ते वाला शख्स मेरे ठीक बगल से गुजरा. उसके शरीर की गंध तक मैं महसूस कर सकता था. थकान असह्य थी, लेकिन विश्वास गजब का था. चंद्रशेखर ने आंखें नीची की और मुस्कुराए..., वह मुझे देखकर निश्चित ही मुस्कुराए नहीं होंगे, लेकिन मेरे जैसे और भी लोग थे, जिनकी तादाद और गगनभेदी नारों की वजह से मुस्कान उनके चेहरे पर आई होगी. मैं आज भी रोमांचित हो उठता हूं कि इतनी बड़ी हस्ती, कैसे मेरे बिल्कुल पास से गुजर गई.
थकान के बावजूद उनकी चाल में तेजी थी. पसीना पोछते हुए भी ललाट दिव्य लग रहा था. मंच बहुत बड़ा नहीं था, लेकिन हस्ती बहुत बड़ी थी. भीड़ को भी इसका अंदाजा था. मुझे याद नहीं कि उस समय चंद्रशेखर ने अपनी अलग पार्टी बनाई थी कि नहीं, लेकिन यह बात गारंटी के साथ कह सकता हूं कि लौरिया में उस दिन उनकी सभा में उनके चाहने वाले ज्यादा थे. अगर उनका कोई राजनीतिक दल था भी, तो उससे ज्यादा चंद्रशेखर को देखने और सुनने वाले लोग ज्यादा पहुंचे थे. मैं भी ऐसे ही श्रोताओं की भीड़ में था. वे चूंकि मेरे बहुत करीब से गुजरे थे, इसलिए मैं अलग ही अनुभूति में था. मुझे उनके भाषण का एक भी शब्द याद नहीं, लेकिन उनकी सभा का पूरा चित्र आज भी मस्तिष्क में है.
बाद के दिनों में जब मैं 'माया' और अन्य पत्र-पत्रिकाओं का पाठक बना और चंद्रशेखर के लिए 'भोंडसी का संत' जैसे विशेषणों के बारे में जाना, तब भी उस सभा की यादें बनी रहीं और उनके लिए की जाने वाली कोई भी टिप्पणी, चंद्रशेखर के विशाल व्यक्तित्व की दिमाग में बनी छवि को धूमिल नहीं कर पाई. लौरिया में उसके बाद हम लोग महज एक दिन और रहे थे. नानाजी के चीनी मिल की जीप ने हमें वापस नरकटियागंज तक छोड़ दिया था. जीप के ड्राइवर का नाम 'मटुकधारी' आज भी याद है. उसके बाद भी जब कभी लौरिया गए, वही मटुकधारी मिला. यह बड़ा रोचक है कि वयस्क होने के बाद सीतामढ़ी से पटना की कई यात्राओं या पटना में रहते हुए भी हम कभी वैशाली नहीं जा पाए, जहां भी अशोक स्तंभ है. आगे जब कभी वैशाली जाना हुआ तो तुलना करने के लिए हमारे पास लौरिया की यादें होंगी. सम्राट अशोक का स्तंभ होगा और होंगे साथ में चंद्रशेखर...!