बुधवार, 19 मार्च 2008

आत्मकथा वाया राजनीति गलियारा

आत्मकथा लिखना मामूली बात नहीं. सब नहीं लिख सकते. गांधीजी ने लिखी. नाम दिया सत्य के साथ मेरे प्रयोग. एक आत्मकथा तसलीमा ने भी लिखी. देश निकाला मिला और दूसरे देश से भी निपटाए जाने के बारे में सोची जाने लगी. हालिया आत्मकथा आडवाणी ने लिखी. सभी अखबारों में जम के छपी. आत्मकथा क्या थी पूरा कच्चा चिठ्ठा था अपने राजनीतिक जीवन का. ये मैं नहीं कहता आडवाणीजी कहते हैं. मगर भारतवासियों का क्या करें जो सत्य के साथ हुए प्रयोग और खंड-खंड में बंटी औरत को पढ़ने के आदी हैं. उन्हें क्या ये आत्मकथा रास आएगी. शायद आए. क्योंकि आडवाणीजी सारथी थे (राम के), और प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हैं भविष्य के. फिर उनकी आत्मकथा में ढेर सारे मसाले होंगे. अखबारों में एडिट होकर छपी उनकी आत्मकथा. जैसे आडवाणीजी जो नहीं कह पाए उनकी उस बात में और सान चढ़ाकर छापे जाने के लिए या पढ़वाए जाने के लिए.
किसी-किसी अखबार में उनकी आत्मकथा के विमोचन का समाचार लीड बनकर छपा. लोग शायद गंभीरता से पढ़ेंगे इस उद्देश्य से. एक मसाला मेरे भी हाथ लगा. झूठ या सच ये तो आत्मकथा पढ़ने के बाद ही पता चलेगा लेकिन कुछ शायद असंपादित रह गया और मेरे आंखों तक पहुंच गया. दरअसल आडवाणीजी ने अपनी आत्मकथा में एक जगह कहा है कि विवादित ढांचा के ध्वस्त होने वाली खबर से उन्हें खुशी हुई थी. उन्होंने आगे लिखा कि चाहे जो भी हो राम मंदिर बनकर रहेगा, यह अकाट्य सत्य है. अब बाबरी मस्जिद विवाद पर जब लिब्राहन साहब टाइम पर टाइम लिए जा रहे हैं, आगामी लोकसभा चुनाव का बिगुल कभी भी बज सकता है, ऐसे में आडवाणीजी की आत्मकथा का प्रकाशित होना सही ही है. मोदी मॉडल के समर्थक भारत को भी तो इसी मॉडल पर ले जाना चाहते हैं. फिर क्यों नहीं उनकी आत्मकथा अभी प्रकाशित हो. राज करने की नीति यही कहती है कि साम, दाम, दंड और भेद, चाहे जैसे हो सत्ता का सुख लो. फिर आडवाणीजी, जो पिछली बार थोड़ा सा चूक गए थे, इस बार क्यों न आत्मकथा लिखें. डर भी है. बुढ़ापा कब साथ छोड़ दे कहा नहीं जा सकता. इस बार तो अटलजी भी नहीं हैं. मत चूको चौहान की उक्ति अभी ही तो काम आएगी. कहना गलत नहीं होगा कि अटलजी इसीलिए भूमिका लिखकर भी आत्मकथा के विमोचन समारोह में नहीं आए.

गुरुवार, 13 मार्च 2008

आइये कुछ फोटो दिखाते हैं आपको

पेट पर पड़ी तो लाल झंडा याद आया। साभार : दैनिक जागरण व पीटीआई



------------------------------------------------------------------------------
सपना दिखा रहे हैं माल्या साहब। आइये इस फार्मूला-1 के ट्रैक पर चलने का अभ्यास करें। भारत 21वीं सदी में जा रहा है न। साभार : दैनिक जागरण व एपी


----------------------------------------------------------------------------------------------------------
पहचान रहे हैं इन्हें, ये उसी नाना के नवासे के जाने हैं जिन्होंने जेल में रहकर भारत को खोजा था। ये साहब हेलीकॉप्टर से भारत खोज रहे हैं। साभार : दैनिक जागरण व पीटीआई


---------------------------------------------------------------------------------------
पहले भी किसी ने इनकी व्यथा सुनने की कोशिश नहीं की थी, अबकी देखते हैं किसके कान पर जूं रेंगती है। हम सब पहले भी इनके साथ थे, अब भी हैं। साभार : दैनिक जागरण व पीटीआई

बुधवार, 12 मार्च 2008

तलब



मौके यूं ही नहीं आते. उन्हें लाया भी जाता है. या कहें कि बरबस वो आपके सामने आ जाते हैं. अब यह तय आप पर है कि उसे किस तरह और कैसे भुनाएं. दरअसल इतनी देर तक उंगलियां टिप-टिपाने का मतलब ज्यादा गंभीर नहीं है. यह वस्तुतः मिठाई खाने की इच्छा को जस्टिफाई करने के लिए है.
कुछ दिनों पहले मैं घर पे था. घर मतलब जहां मां-बाप हों या रहते हों, ऐसा मेरा मतलब नहीं है क्योंकि मैं अपने गांव से समझता हूं कि मैं घर पर था. खैर, मैं घर यानी मुजफ्फरपुर में था. जो वहां के हैं उन्हें पता होगा कि उस शहर से सटे एक कस्बा है रून्नी सैदपुर. सीतामढ़ी-मुजफ्फरपुर के रास्ते पर पड़ने वाला यह कस्बाई स्टॉपेज नॉन-स्टॉपेज बसों के लिए नहीं है. हां राज्य परिवहन की सभी बसें जरूर यहां ठहरती हैं. मगर इसकी खासियतों में एक तो जाना-पहचाना सा गांव बेनीपुर का होना है और दूसरा यहां मिलने वाली लजीज मिठाई बालसाही का. (बालुशाही भी पढ़ सकते हैं शुद्धता के लिए). तो पहली पहचान बेनीपुर गांव के बारे में बता दूं कि यह प्रसिद्ध साहित्यकार रामवृक्ष बेनीपुरी का गांव है. और दूसरी बालसाही जो यहां के बस अड्डे से लेकर हर चौराहे पर मिल जाती है. जाहिर है रून्नी सैदपुर से मुजफ्फरपुर की इतनी नजदीकियों के चलते बालसाही ने पहले तो बिहार के इस कहे जाने वाले महानगर को अपना शिकार बनाया और अब पूरे बिहार को करीबन. ऐसा दावा है मेरा.
तो बात जरा यूं थी कि मैं मुजफ्फरपुर में था. मेरठ से मैसेज गया कि बालसाही लेते आना. मैंने भरपूर कोशिश की जैसे कि अन्य लोग करते हैं लेकिन असफल रहा और बैरंग मेरठ लौट आया. जाहिर तौर पर मेरठियों का गुस्से में आना लाजिमी था, वो आए भी. मैं भी नैतिक रूप से उनके साथ था. सो मौका मिला. एक मित्र बनारस गए. मैंने फरमाइश कर डाली वहां से मिठाई लेते आने की. साथ में वहां पढ़ रहे अपने भाई से भी कह दिया कि कुछ मिठाई भेज देना. अब यहां बैठकर उसी की प्रतिक्षा कर रहा हूं. आएगी मिठाई तो खिलाउंगा. तब तक के लिए टाटा-टाटा................

शनिवार, 1 मार्च 2008

हाकी का दिल चुराया


हाकी का दिल चुरा लिया. कुछ अटपटी बात है न. खैर, हम बताते हैं कि बात आखिर है क्या. दरअसल मेरठ में पिछले दिनों एक राष्ट्रीय स्तर के हाकी टूर्नामेंट का समापन हुआ. उसी में बैंड वाले ये गाना बजा रहे थे. बैंड वालों को अक्सर पता होता है कि उन्हें बजाना क्या है. अमूमन लोग-बाग उन्हें बता भी दिया करते हैं कि फलां धुन छेड़ना तो जरा...आदि-आदि. पर मुक्तसर में ये कि बैंड वाले रस्मों की नब्ज जानते हैं, बीमारी दिखी नहीं कि दवा पिला के ही छोड़ेंगे. खैर, बात हो रही थी मेरठ और वहां हुई हॉकी की.

मेरठ से खेलों की पुरानी यारी है. खेल यहां न हों तो पता चले कि इस पट्टी के लोगों के पास गपियाने का एक ऐंगिल ही कम पड़ जाए. तो बात हो रही थी हॉकी टूर्नामेंट में बैंड पार्टी की. बैंड वाले जगह और मूड भांपने के उस्ताद होते हैं. पर बात खेल की हो तो उनका दिमाग कम चलता है. बड़े शहरों (यों मेरठ छोटा शहर नहीं है, पर यहां नहीं) में तो बैंड वालों के पास आप्शन होता है. उनके बैंड वाले दुकान के आजू-बाजू रेडियो मैकेनिकों के वर्कशॉप होते हैं जहां जब तक शटर खुला हो गाने बजते हैं. इससे बैंड वालों को रियाज करने का वक्त मिल जाता है. पर मेरठ जैसे छोटे शहरों में जहां सिर्फ शादी-ब्याह या ऐसे ही किसी त्योहारों पर बैंड वालों को बुलाने का चलन है, वहां इन छाती-फाड़ मनोरंजुओं (नया शब्द लगे तो मनोरंजन करने वाले पढ़िएगा) के जरूरी संसाधन सीमित होते हैं. इसलिए गाने रिपीट होते हैं और लोग बोलते हैं कि चवन्नी छाप बैंड उठा लाया है बबुआ. तो मेरठ में जहां हॉकी स्टिक के सहारे गोलपोस्ट में खड़े गोली को गच्चा दिया जाने वाला खेल खेला जा रहा था वहां इन बैंड वालों की समझ में ही नहीं आ रहा था कि बजाएं तो बजाएं क्या. बड़ी पसोपेश के बाद उन्होंने एक तान छेड़ी, ...दिल चुरा लिया, तूने मुझे प्यार करके, इकरार करके, दिल चुरा लिया.... आसपास के लोग हैरत में उनकी ओर ताकने लगे. बैंड मास्टर समझ गया कि गड़बड़ है. तुरत अमल हुआ, और धुन चेंज. ...आज मेरे यार की शादी है..., लोग हक्का-बक्का. बैंड मास्टर अपनी धुन का और फिल्में देखने का पक्का था. तीसरा दांव लगाया. ...ये देश है वीर जवानों का, अलबेलों का, मस्तानों का, इस देश का यारों...पें,पें,पें.... इतनी देर में लोग भी समझ चुके थे कि बैंड वाले मौजूं धुन की कमी से जूझ रहे हैं. लोगों ने कान फेर लिए, बैंड वालों को राहत मिली, उन्होंने अपनी तुरहियों को विराम दे दिया, हॉकी खिलाड़ी जो अब तक अपने रेफरियों की आवाज और इस बैंड में फर्क नहीं कर पा रहे थे, उन्हें भी लगा कि कुछ है जो छूट रहा है. खैर बैंड बजना बंद हो गया. सभी ने राहत की सांस ली. मगर टूर्नामेंट के आयोजक आम आयोजकों की तरह ही थे सो उन्हें लगा कि हॉकी है, जब खेली भी जा रही है तो बैंड क्यों न बजेगा. लेकिन बैंड वालों की लाचारी से भी वे नावाकिफ नहीं थे सो उन्होंने रिकार्ड चला दिया. मैं क्या लिखूं, आप समझ ही गए होंगे कि आजकल क्रिकेट से लेकर हॉकी या किसी भी खेल में कौन सा 'कबीरा' राग बजाया जाता है, सो बजने लगा. खिलाड़ी भी खुश हो गए थे सो एक टीम ने गोल दाग दी, दर्शक भी खुश हो गए. मैदान पर फील-गुड हो गया.