शनिवार, 24 नवंबर 2007
खइबऽ तबऽ न जनबऽ
खैर दोसरा बात सब अभी छोड़ऽ. बिहार के पंडाल में घूस के हम त पहिले तकली आपन मिथिला के. श्याम त मरदे रहल मगही. ऊ हमरा के टोंट कसलक, अरे झाजी इहां बिहाड़ में कहां से मिथिला को ढूंढ़ रहे हैं आप. चलिए घूमते-वूमते हैं. जो जहां दिखेगा देख लेंगे. मगर हो मरदे कथि कहियो, हमरा तऽ ध्यान रहय लिट्टी के. से तकइत-तकइत मिलिए गेल लिट्टी-चोखा के स्टाल. अब जे हमर मन गदगद हो गेल एकरा बारे में जान के कि करबा तू. रहय दा. दुनू गोरे झट्ट दनी स्टाल के दोकानदार के दू पलेट लिट्टी के आडॆर कर दिए. दोकानदारो बरा समझदार रहय. झट दनी दे देलक आ हम दुनू गोरे लग गेली लिट्टी-चोखा के सधावे में. कि कहियो हो मरदे. इह ऐसन महीन सतुआ पीसले रहय कि दुनू गाल के बीच लिट्टिया त गल के हलुआ हो गइल. आ, चटनी, मरदे कि पुछैछा. आलू, टमाटर आ बैगन के तऽ समझ लऽ जे पूड़ा मिसमिसा देले रहलैयऽ. एहि से झूठे न न कहैत हतियो, सचे में मन गदगदा गइल. ओकरा बाद कुछो खाइ के त मन नहिए कयलक मगर हमरा तऽ घूम के फेनू मेरठे आबे के रहय. आ मेरठ में हमर जे बास हथुन न से बड़ा जीहगर हैं. नीमन चीज खाय में जेना मरदे तोरा मन लगैत हौ, ओनाहिते हुनकरो के. से हम आधा किलो गया वला तिलकुटवो ले लिए. ओकरो स्वाद बरा बेजोर हय. सीधे गया पहुंचा देगा जीभ के भीतर जाइते-जाइते. लिट्टी-चोखा खा के हमरा भइल कि तोरो सब के बता दीं ताकि जे सब परगति मैदान में नहि गए हैं ऊ सब जल्दी चले जाएं. कसम से, मज्जा आ जाएगा.
हं ई जान लीजिए कि ई लीखि के हम आईआईटीएफ के परचार नहीं कर रहे हैं, से जान लो बरका बुद्धि लगाने वालों. सच्चे-सच्चे लीखे हैं. एगो बात आउरो जिनकरा के ई लगता हो कि खाली लिट्टिए-चोखा ऊहां मिलता है, गलतफहमी में हैं. अरे दूसरो-दूसरो राज्य के स्टाल हैं. हां सब चीज खाने के बाद पानी 15 रुपए मिलेगा आ बीच में मन करे कि चाह पीना है तो ऊ भी 10 रुपए मिलता है. इसीलिए पानी आ चाह भकोस के जाइएगा.
नोट - अब तक जी में पानी आ गया हो तऽ चल न जाइए, हम बोल न रहे हैं.
रविवार, 18 नवंबर 2007
नागार्जुन के दो रंग
यह तुम थीं
कर गयी चाक
तिमिर का सीना
जोत की फांक
यह तुम थीं
सिकुड़ गयी रग-रग
बनाकर ठूंठ छोड़ गया पतझार
उलंग असगुन सा खडा रहा कचनार
अचानक उमगी डालों की संधि में
छरहरी टहनी
पोर-पोर में गसे थे टूसे
यह तुम थीं
झुका रहा डालें फैलाकर
कगार पर खडा कोढी गूलर
ऊपर उठ आयी भादों की तलैया
जुडा गया बौने की छाल का रेशा-रेशा
यह तुम थीं।
१९५७
शासन की बंदूक
कड़ी हो गयी चांपकर कंकालों की हूक
नभ में विपुल विराट-सी शासन की बंदूक
उस हिटलरी गुमान पर सभी रहे हैं थूक
जिसमें कानी हो गयी शासन की बंदूक
बढ़ी बधिरता दसगुनी, बने विनोबा मूक
धन्य-धन्य वह, धन्य वह, शासन की बंदूक
सत्य स्वयं घायल हुआ, गयी अहिंसा चूक
जहाँ-तहां दगने लगी शासन की बंदूक
जली ठूंठ पर बैठकर गयी कोकिला कूक
बाल न बांका कर सकी शासन की बंदूक
१९६६
आगे संभव हुआ तो किताब है ही, और खंगालूँगा यात्रीजी को। अब तक के लिए नमस्ते।
बुधवार, 14 नवंबर 2007
अंतराल के बाद.....
बीच की कुछ घटनाएं उन्हें जोड़ती हैं, एक नया अंतराल जनमाने के लिए.
कुछ ऐसा भी घटित होता है जीवन में, कल्पना जिसकी न की हो कभी
सुखद हो या दुखद, ये 'कुछ' भी दे जाता है अंतराल, एक नया अंतराल जनमाने के लिए.
आकांक्षाएं, मनोरथ, भावना, ममत्व, ऐसे शब्द जहन में उभरते हैं जब
समय उन्हें बे-अख्तियार घूरता रहता है, अपनी चुभन से दम निकालने के लिए
ताकि फिर वही अंतराल पैदा हो, एक नया अंतराल जनमाने के लिए.
फिर बांध कर आस डगर पार पहुंचने के लिए, इंसान कोशिश ही तो कर सकता है,
कहां पाट सकता है उस अंतराल को, जो जीवन में उसके दे जाता है अंतराल,
एक नया अंतराल जनमाने के लिए.
उस अंतराल के बाद दुनिया रुक तो नहीं जाती, कदम थम तो नहीं जाते इंसान के,
उस अंतराल के बाद के जीवन को जीने के लिए, लेकिन कहां भरती है वो खाली जगह
जिसे किन्हीं महत्वपूर्ण क्षणों में जीया है किसी ने, अपने भीतर महसूसती उस कसक को,
कहां भूलता है आदमी एक अंतराल के बाद........
शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2007
फिर मचाया तहलका तहलका ने
तीखी पत्रकारिता समाज को दिशा देती है. कई लोग कहते हैं कि यह कोरी बात है. लेकिन अपनी कलम या कह लें कैमरे (आज के दौर में) से इस कोरेपन को मिटाया जा सकता है. आपरेशन कलंक इसी की एक कड़ी है. गुजरात के दंगे नरसंहार के रूप में याद किए जाते है. देश के कई राजनीतिक दल इसे सदी अपने-अपने शब्दों में विशेषण देते हैं. भाजपा भी इसे देश के नाम पर कलंक कहती है. कांग्रेस तो जघन्यतम कृत्य कहगी ही क्योंकि ये दंगे उसके शासनकाल में नहीं हुए. छुटभैये दल भी गाहे-बगाहे कुछ न कुछ बोल ही लेते हैं. हां, हिंदुत्ववादी संगठन जरूर गुजरात दंगे के बाद इस प्रदेश को हिंदुत्व की प्रयोगशाला कहने लगे हैं. कमोबेश नरेंद्र मोदी को दोषी मानने वालों की संख्या इस दंगे के बाद ज्यादा ही हुई है. ऐसे में जब तहलका इन दंगों पर स्टिंग आपरेशन करता है तो भाजपा की त्योरियां चढ़नी स्वाभाविक है.
आपरेशन के मीडिया में छा जाने के एक दिन बाद रविशंकर प्रसाद ने प्रेस कांफ्रेंस में कहा कि यह कांग्रेस की चाल है. चूंकि अभी चुनाव है इसीलिए कांग्रेस समर्थित तहलका ने यहां स्टिंग कराया. रवि बाबू का तकॆ था कि गुजरात जो कि देश के विकसित राज्यों की पहली पंक्ति में है, जहां की जीडीपी देश की जीडीपी से कदम-से-कदम मिलाकर चल रही है, जहां होने वाले चुनाव में विकास मुद्दा बनने वाला था, वहां पर अभी क्यों कांग्रेस ने स्टिंग कराया. यानि यदि स्टिंग बाद में होता तो भाजपा को दिक्कत नहीं होती. आशय ये भी कि कोई भी कांग्रेसी स्टिंग एजेंसी गुजरात में चुनाव के बाद स्टिंग करा सकती है. अब यह तकॆ तो किसी के गले उतरेगा नहीं कि कोई भी स्टिंग आपरेशन चुनावों को देखकर किया जाए. खासकर पत्रकारों के गले जिन्हें कि ऐसे समाचारों की जरूरत हमेशा ही रहती है. शायद दशॆकों के गले भी न उतरे जो स्टिंग-फिक्सिंग कैसी भी ब्रेकिंग न्यूज के लिए चैनल खोले बैठे रहते हैं. लिहाजा रवि बाबू की मुश्किल आसान नहीं होने वाली है.
रवि बाबू के प्रेस कांफ्रेंस में कई और बातें निकल के आईं. उनका कहना था कि गुजरात विकास कर रहा है इसलिए उसके विकास से जलकर लोग स्टिंग करा रहे हैं. उसकी जीडीपी बढ़ रही है इसीलिए स्टिंग कराया जा रहा है. भाजपा के नरेंद्र मोदी जैसे तेजतर्रार मुख्यमंत्री की कायॆकुशलता से जलकर लोग स्टिंग करा रहे हैं. अब भला कोई रवि बाबू को बताए कि तहलका जैसों का धंधा ही है स्टिंग करना. जैसे आपकी पार्टी बिना मोदी के नहीं रह सकती उसी तरह तहलका बिना स्टिंग के नहीं रह सकता. रवि बाबू को याद दिला दें कि अभी उन्हीं की पार्टी के नरेंद्र मोदी ने गुजरात में भाजपा की एक सीडी जारी की. इसमें सब कुछ था. गुजरात की समृद्धि थी, उसका विश्वपटल पर बदलता रूप था, जब-तब अन्य लोगों द्वारा की गई गुजरात या उसके नरेंद्र मोदी की प्रशंसा थी. मगर नहीं थे तो पार्टी के मुखौटा कहे जाने वाले अटलजी, वर्तमान अध्यक्ष राजनाथ सिंह. और न जाने इनके जैसे कई और कितने ही पार्टीवाले. रवि बाबू आपके नरेंद्र मोदी में ही कुछ बात है जिसके कारण जहां कहीं सिफॆ वही और वही दिखते हैं. अपनी सीडी में भी और तहलका की सीडी में भी. नरेंद्र मोदी में कुछ खास है जो उन्हें भीड़ से अलग करता है. रवि बाबू, इसीलिए अपने गिरेबां में झांकिए और देखिए. कहीं गोधरा में उस साबरमती एक्सप्रेस को जलाते मोदी दिख जाएंगे. विचार करिए कि देश की नाक कटा देने वाले उस दंगे में आपके न सही बहुतों के अपनों की जान चली गई थी. अभी समय है, आप विचार कर सकते हैं. कहीं यह वक्त निकल गया तो... अब आपकी सरकार भी नहीं रही जो तरुण तेजपाल को बेवजह के लफड़ों में फंसाने की मंशा रखती थी. ऐसा न हो कि तहलका फिर कोई तहलका कर दें और आपको पत्रकारों के सामने पार्टीवाले सफाई देने के लिए भेज दें.
शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2007
रा.....म.... लीला............. में हम दोनों
बहुत दिन नहीं हुए हमारा रिश्ता ग्रामीण रंगमंच से टूटे. महज पांच साल ही तो. लगता है सदियां गुजर गईं इंतजार में. फिर विजय ने कहा मूंगफली के बहाने रामलीला देखेंगे. सुनकर दिल खुश हो गया. उसे बता नहीं सकता था कितनी खुशी हुई. इसलिए नहीं कि रामलीला देखने जा रहे थे. इसलिए कि उसे पता था नाटक मुझे अच्छा लगता है. करना भी, कराना भी, देखना भी और दिखाना भी. ऐसे में रामलीला, वाह मजा आ गया.
दरअसल, अखबार में आकर अपन तंग हो गए हैं. कपड़े में नहीं, जिंदगी में. आनंद नामक शब्द की व्याख्या बदल सी गई दिखती है. पहले जब गांव में नाटक होते तो लगभग हम सपरिवार उसके गवाह हुआ करते थे. कभी-कभार हम भाई और बाबूजी ही. लेकिन गणित के एक्स फैक्टर की तरह मैं कॉमन हुआ करता था. पहले गांव, फिर बगल वाले गांव और फिर दूर-दूर तक. हमारे इलाके में होने वाला कोई भी नाटक मुझसे शायद ही अछूता रहता हो. फिर हम पढ़ाई में जुट से गए. और कुछ दिनों के बाद नौकरी में. हालांकि पढ़ाई के दौरान ऐसा नहीं था कि नाटक छूट गया, स्नातक तो थोड़ी बहुत, परास्नातक में तो लगा कि पुरानी दुनिया लौट आई है, लेकिन वह विराम जैसा कुछ था. माखनलाल पत्रकारिता विवि में पढ़ते हुए ऐसा कभी नहीं लगा कि हमारा रिश्ता नाटक से टूटा हो. इसलिए भोपाल वाले मित्र भी मेरी नाटक-प्रियता से भली-भांति वाकिफ हैं. विजय के रामलीला का न्योता इसीलिए खुशी का द्योतक था.
अपने नाटक का पुराण बहुत हो गया, शीषॆक की ओर लौटें. दरअसल मेरठ में रामलीला देखने का मौका मिलना सिफॆ सुखद ही नहीं, आश्चयॆजनक अनुभव भी था. यहां कहां इतनी फुसॆत मिलती है कि राम जैसों का लीला देखने जाएं. लेकिन महाष्टमी को यह घटना घटी. हम रामलीला देखने गए. चारों तरफ जबदॆस्त भीड़. संभ्रांत और अ-संभ्रांत सभी तरह के लोगों का जमावड़ा. आमतौर पर सामने रहने वाला मंच यहां भी सामने था. वहां सूत्रधार भी खड़े थे. और नृत्य चल रहा था. ''जोड़ा-जोड़ी चने के खेत में'' का रिकाडॆ बज रहा था और 'नृत्यांगना' (दरअसल वह लड़का ही था) का अंग-प्रत्यंग थिड़क रहा था। भाव, मुद्रा, ताल, थाप, गीत, संगीत आदि संबंधी विशेषग्यता की खास जरूरत नहीं थी, सो ये ताम-झाम नहीं थे. हम और विजय मंच पर नजर गड़ाए राम या रावण, किसी की प्रतीक्षा करने लगे.
खैर, सूत्रधार ने घोषणा की और पहले रावण आया. (नाटक हो जाए, ध्यान ये रखिएगा कि किसी भी पात्र के डायलाग का पहला अक्षर नाभिकुंड से उठना चाहिए, बाकी शब्द दशॆकों को सुनाई न भी दें तो चलेगा. हालांकि कुछ पोशॆन मैंने लेखकीय स्वतंत्रता के तहत संपादित कर दिए हैं, बाकी जस-का-तस है. इसके लिए माफी. )
रावण - जय....शंकर जी....महाराज
दरबारी - जय....शंकर जी....महाराज
रावण - वी.......रों, राम अपनी से...........ना लेकर आ गया है.
दरबारी - जी.... महाराज
रावण - हम........ राम को लंका आने का मजा........ चखाकर रहेंगे
दरबारी - जी.... महाराज
रावण - इंदर.........जीत, तुम सेना लेकर जाओ
इंद्रजीत - जो आग्या. (प्रस्थान)(इसे राजधानी एक्सप्रेस की स्पीड में पढ़ें)
रावण - (दूसरे नायक से) तुम........ भी इंदरजीत के साथ जाओ.......... और युद्ध करो
नायक - जो आग्या (प्रस्थान)(इसे भी राजधानी एक्सप्रेस की स्पीड में पढ़ें)
रावण - जय....शंकर जी....महाराज
दृश्य परिवतॆन
ऐसा ही एक दृश्य और देखा हमने. आनंद आया. ब्रेक में नागिन डांस भी था. विजय और हम दोनों ही संगीत प्रेमी हैं. गाने जी लगा के सुनते हैं. कई बार हमने भी सामूहिक रूप से नागिन डांस किया है. लिहाजा मंच पर जो कुछ भी घटित हो रहा था उससे हमारे शरीर की रोमावलियों को रोमांच होना मौलिक था, इसमें हमें भी आश्चयॆ नहीं हो रहा था, आप भी मत करिए. लेकिन आफत ये थी कि हारमोनियम मास्टर कब धुन बदल देता था इसका पता न तो दशॆकों को लग पाता ता और न ही उस डांसर को. अलबत्ता डांसर तो ॥रंग.. में डूबी रहा होगा (आमतौर पर हमारे यहां का रहता है.), उसे हारमोनियम मास्टर की बदमाशी का पता नहीं चल रहा था. दशॆक फ्री में नाच देख रहे थे, उनका क्या जा रहा था. दफ्तर में हम डाक एडीशन छोड़ कर आए थे, सिटी का टाइम हो गया था. हम चल पड़े.
रास्ते में दोनों ही बात कर रहे थे जैसे कि कुछ भूल गए हों. माथे पर जोड़ दिया दोनों ने ही. विजय को याद आ गया. बोला, अरे गुरु पांच रुपैय्या वाला सीन तो ठीक से कर ही न पाए ये लोग. मैंने कहा, हां यार, जब तक ...फलाने ने इस डांस पर खुश होकर पांच रुपैय्या.. ढिकाने डांसर को इनाम दिया.. इसके लिए उनका हम शुक्रिया..अदा..कर..ती..हूं...., न कहा जाय मजा नहीं आता. विजय ने भी कहा, हां.
शनिवार, 13 अक्तूबर 2007
जहाँ तक पहुंचती है नज़र....
खैर, वापस लौटते हैं विकास पर। चित्रकूट कार्यशाला मुख्यतः दो भागों में बंटी थी. पहला विकास की वतॆमान दिशा और स्थिति पर विचार जो अमूमन ऐसी किसी कायॆशाला के पहले सत्र में खास हुआ करती है. दूसरा आगे की कायॆयोजनाओं पर विमशॆ ताकि फलप्रद दिखे ये कवायद. मुझे लगता है कि आम कायॆशालाओं की तरह यहां भी पहला सत्र काफी सारे विद्वानों के काफी सारे तथ्य से भरा-पूरा रहा. इंदौर के सप्रेस वाले चिन्मय जी, झारखंड से आए अश्विनी जी, वहीं के निराला, भोपाल से पुष्पेंद्र पाल जी, आयोजकों में से एक सचिन जी जैसे तथ्यान्वेषियों ने अपने पिटारे जी भरकर खोले. इससे इस कायॆशाला का सेंसेक्स हजारी-दर-हजारी ही हुआ. यह सही भी है क्योंकि जब तक विकास को आंकड़ों के तराजू पर तौलकर देखनेवाली सरकार को उन्हीं के मुंह पर मारे जाने वाले आंकड़े न मारे जाएं, उन्हें 'लगता' ही नहीं....
सबसे जो सही बात इस कायॆशाला की रही वह था इसका 'इंटरएक्टिव' होना. इससे आम कायॆशालाओं या सेमिनारों में बैठकर झक मारनेवाले या कह लें सोनेवालों को घोर निराशा हुई होगी. पहली बैठक का ही बात-चीत से शुरू होना और अंत तक इसी स्वरूप में चलना अच्छी बात रही. हालांकि कम अवधि का होने से वक्ताओं को थोड़ी मुश्किल जरूर हुई, लेकिन यह 'टालरेबल' था.
कुछ बातें उस दिन अधूरी ही थीं कि किसी नामुराद ने पोस्ट पर क्लिक कर दिया. इसके लिए सौरी. आगे देखते हैं...
जो मुख्य बातें इस कायॆशाला में सामने आईं उनमें
१.विकास के लिए व्यक्तिगत तौर पर सहभागिता हर स्तर पर होना चाहिए
२. जिससे जितना जहां बन पड़ रहा है, उसमें कमी नहीं की जानी चाहिए
३. विकास संबंधी सूचनाओं से अपने-आपको अपडेट रखना भी जरूरी है
४. मीडिया में विकास संबंधी गतिविधियों का नियमित अवलोकन भी जरूरी ....
इसके अलावा कई और भी बिंदु थे जिनकी ओर उक्त कायॆशाला में आए लोगों का ध्यान गया होगा। दरअसल इस पोस्ट का शीषॆक जहां तक पहुंचती है नजर...रखने का कारण भी यही था. विकास संबंधी मुद्दों की आज देश में यही स्थिति है. सुदूर बस्तर से लेकर कालाहांडी या उत्तर-पूवॆ की स्थिति या फिर महाराष्ट्र और आंध्र में किसानों की खुदकुशी, कहीं भी तो हम निश्चिंत नहीं हैं. फिर एक पहल भर की तो जरूरत है हमें विकास के लिए आगे बढ़ने की.....कहिए, खूब भाषण हो गया न.... मैंने सोचा विकास-विकास रटते-रटते आपको गुदगुदी लगा दूं....
बाकी कल...
मंगलवार, 9 अक्तूबर 2007
दो दिनों का एफ-5
पिछले 6 और 7 तारीख को हम कुछ पत्रकार चित्रकूट में थे. मौका था विकास संवाद पर कायॆशाला का. बहाना सरकारी विकास की भागमभाग भरी रफ्तार के बीच मौलिक और टिकाऊ विकास की बात करने का. चित्रकूट जैसी जगह के चयन को लेकर पहले तो लगा था कि यह महज घुमाऊ-फिराऊ कायॆक्रम होगा। लेकिन उन दो दिनों में यह धारणा या कह लें कयास बेकार साबित हुआ. इतना ही नहीं वहां आए तकरीबन 50 ज्यादा पत्रकारों के बीच रहकर नौकरी करते रहने की मानसिकता से भी उबरने का मौका मिला. इसी बीच वहीं पर किसी ने पूछा कि 'क्यों आए हो' , तो अपने पास जवाब मौजूद था; वे कंप्यूटर से जूड़े व्यक्ति थे. हमने कहा, यह दो दिनों का एफ-5 है. उनके लिए यह शायद अचंभित करने जैसा था। और उन्हें यह भी लगा कि यह व्यक्ति क्या पत्रकारिता करता होगा जो गंभीर जगहों पर भी हास्य का भाव पैदा कर रहा है. मेरे सहयोगी रूपेश वहीं मौजूद थे, उन्हें हंसी आ गई.
दरअसल नौकरी करते-करते हम अखबारदां लोगों की मनःस्थिति कुछ ऐसी हो जाती है कि हमें अपने लिए सोचने का मौका कम मिलता है. ऐसे में जब सेमिनार, वकॆशॉप या ऐसी ही कुछ अन्य 'सरफिरी' बातें हमारे सामने आती हैं, तो वह हमें महज मजाक लगती हैं. हम अपनी छुट्टियों को सहज भाव से न लेकर उसे 'कामों' के लिए बचाए रखते हैं. यह बड़ी खतरनाक स्थिति है. चिकित्सकीय शोधों और निष्कषॆ के आधार पर भी इसे सवॆ-स्वीकायॆ नहीं माना गया है. खासकर जब इस कायॆशाला की बात की जाए तो यहां तो बिल्कुल भी नहीं लगा कि यह 'रिफ्रेसिंग' नहीं था. हां, बच्चों को पढ़ाए जाने की तरह यहां भी खेल-खेल में बहुत सारी बातें काम की हो गईं.
इस कायॆशाला की बातें अगले अंक में...
शनिवार, 22 सितंबर 2007
रात की चाय
अच्छा लगता है न शीषॆक पढ़कर. रात की चाय। जीभें लपलपा उठती हैं और मन बरबस उस चाय वाले के यहां चहल-कदमी करने लगता है, जहां कल रात चाय पी थी. हममें से कितनों को ये मौका रोजाना मयस्सर होता है, कहा नहीं जा सकता. मेरी इच्छा हमेशा रहती है, मौके कभी-कभार ही मिल पाते हैं. अलबत्ता मेरे दोस्तों को मजे लेने का मौका जरूर दे देती है मेरी रात की चाय.
रात में चाय पीना यूं ही शोशेबाजी नहीं है। इसके लिए बाजाप्ता जुगाड़ लगानी पड़ती है. मैं और मेरे दोस्तों के पास इसका छोटा सा ही सही, एक इतिहास है. हां इतिहास ही कहेंगे. भोपाल का भैयालाल कहने को तो सात नंबर स्टाप पर चाय का ठेला भर लगाता था, लेकिन वो हम. चयक्करों की नींव को और ज्यादा सीमेंटेड कर रहा था. हालांकि हममें से बहुत ऐसे भी थे जिन्होंने ये आदत भैयालाल के यहां नहीं लगाई थी. उनकी पुरानी रही होगी. भैयालाल के न होने पर रात में हम अक्सर हबीबगंज स्टेशन के सामने ठिकाना बनाया करते थे. उस समय उन पुलिस वालों को देखकर हममें से बहुतेरे टोंट-बाजी किया करते थे. कारण रहता था. कुछ तो प्रेस से लौटे होते थे और पुलिस की कारिस्तानियों से थोड़ा या ज्यादा परिचित हुआ करते थे और कुछ हम जैसे जो उनको सुन-सुनकर ऐसी धांसू जानकारियां रखते थे. अव्वल हममें बड़े पत्रकार होने का न सही बनने का जुनून तो रहा ही करता था.
बहरहाल, चाय पीने की ये दास्तां हम और हमारे दोस्तों के साथ बढ़ती चली आई। नौकरी मिली तो यह और बढ़ गई। अब तो कमाने का भी शानदार भ्रम था। सो एकबारगी हम गाजियाबाद से मेरठ तक चले आए चाय पीने के नाम पर। कुछ और काम तो रहा ही होगा। नाम चाय का हुआ। मुझे खुशी हुई। बाद के दिनों में ये चाय-चक्र काफी गंभीर होता गया. कई बार पीयूष को सोते से उठाकर हम दो किलोमीटर दूर गाजियाबाद स्टेशन ले जाया करते थे ताकि चाय पीएं. अच्छा चाय अकेले पीने में मजा नहीं देता. दो-चार लोग हों तो हर-एक सिप में उसके आनंद का पारावार नहीं रहता. अब हम गाजियाबाद में चूंकि तीन ही लोग थे. मैं और रवींद्र भाई आफिस से काफी थककर (हंस सकते हैं आप) लौटते थे. इसीलिए चाय जरूरी होती थी. पीयूष दिन के छह घंटे की नौकरी और चार घंटे की रेल-यात्रा से थककर लौटता तो था, मगर कुछ देर सो लेने से उसकी थकान दूर हो जाती थी, ऐसा रवींद्र भाई और मेरा मानना हुआ करता था. अब ऐसे में चाय तो जरूरी ही होती होगी न, क्यों...
जारी
सोमवार, 17 सितंबर 2007
हे राम !
कितनी स्थितियों में आपके पास व्यक्त करने के लिए ये पूणॆ या अपूणॆ वाक्य होता है। देखते हैं...
१. जब आप या आपका चप्पल गूं से सन जाए
२. आप अपने किसी संगी के किसी कृत्य से अफसोस करने की स्थिति में पहुंच जाएं
३. आपके आसपास की परिस्थितियां आपके वश में न हों
४. जब आप कुछ भी करने की स्थिति में न रहें
५. निजॆन स्थान पर जब आप अकेले हों
६. आश्चयॆ को व्यक्त करने की स्थिति में
७. आप या आपका कोई संबंधी मर रहा हो (जैसे गांधीजी के साथ हुआ)
८. किसी घटना से दुखी होकर
९. यात्रा के दौरान आपकी बस या ट्रेन छूट जाए और आगे साधन मिलने का कोई जुगाड़ न दिख रहा हो
१०. ...ताजा संदभॆ में देखें तो केंद्र सरकार और विपक्षी व वामदलों की शोशेबाजी पर भी इस वाक्य का व्यवहार समुचित है
ये तो कुछ बानगी भर है। इससे इतर भी कई स्थितियां ऐसीं हो सकती हैं जहां राम का नाम बरबस लोगों के कंठ से बाहर आ जाता है. मैथिली के प्रसिद्ध विद्वान हरिमोहन झा कह गए हैं कि राम ने अपने जीवन में कई ऐसे कृत्य किए हैं जिसके कारण उनका नाम गूं से छू जाने पर लोग ले ही लेते हैं. अब झाजी की यदि मानें तो इतने पर भी यदि अब तक राम भगवान के रूप में बचे हुए हैं तो ये उनकी नहीं, हमारी आस्था और भाजपा, विहिप जैसे संगठनों की बदौलत ही है, ऐसा हम मान सकते हैं. फिर यदि केंद्र या कोई भी सरकार राम से जुड़ा कोई भी मसला ऐसे तरीके से उठाएगी जैसे कि उसने उठाया, तो हंगामा लाजिमी ही है. मुश्किल उन वामपंथियों को ज्यादा होनी चाहिए थी क्योंकि उनके माक्सॆ अपने पोथे में राम जैसे किसी तत्व का उल्लेख ही नहीं कर गए हैं. लेकिन उनके बंगाल से सटे बिहार में राम की लुगाई सीता की जन्म स्थली है. उससे सटे नेपाल के जनकपुर को तथाकथित ही सही राम का ससुराल माना जाता है. (यहां ये गौरतलब है कि बिहार के दो जिले (मधुबनी और बेगूसराय) कभी वामपंथियों के लिए लेनिनग्राद और पीट्सबगॆ कहे जाते थे.) तो शायद बिहार के कारण ही वामपंथियों ने बच-बचके राम सेतु पर केंद्र का विरोध किया.
भाजपा अपने पुराने प्लेटफामॆ पर आ गई। उसके लिए स्थिति ज्यादा सही है. वो राम को बाकी दलों के मुकाबले बेहतर जानती-समझती है. उसके कई कारिंदे डायरेक्ट राम मंदिर का संतत्व छोड़ के आए हैं. राम की किसी भी चीज पर उनका पहला अधिकार बनता है. फिर वो सेतु. राम की जिंदगी का टरनिंग प्वाइंट तो वही था. इस पर किसी को कुछ करने का अधिकार है तो वह भाजपा को है, संप्रग को नहीं. इसलिए भाजपा ने ठान ही रखी है कि राम के नाम का गूं अगर किसी के चप्पल में लगेगा तो वह भाजपा का होगा, किसी और का नहीं. बाकियों के लिए क्या लिखें वो तो अपना धमॆ निभा रहे है इंडियन एक्सप्रेस की तरह. केंद्र में कोई भी हो, किसी 'एंगिल' से विरोध करना ही है.
अब आप खुद ही सोच सकते हैं कि ऊपर जो मैंने कुछ परिस्थितियां गिनाईं उनमें से कौन-कौन सी स्थिति इन दलों के लिए फबेगी..................
मंगलवार, 11 सितंबर 2007
अनुभव
कल अपने हषॆ भाई की कार में बैठकर चाय पीने गए। अच्छा लगा. ड्राइवर नया था, हम बैठने वाले भी उन्हीं की तरह के सवार थे. लेकिन इसमें नया क्या है. दरअसल अनुभव नया है. कार में इससे पहले भी बैठे हैं हम लोग. उसमें बैठकर चाय पी है, बातें की हैं, खालें छीली हैं आदि-आदि. लेकिन कल का बैठना थोड़ा सुहाना था.
याद है जब पहली बार कार में बैठे थे। उस फिएट के दरवाजे से पता नहीं क्यों बाहर आ रही ग्रीज ने मेरी शटॆ पर धब्बे छोड़ दिए. अव्वल बैठ तो गए थे संख्या ज्यादा थी इसलिए आराम नहीं था. खैर खिड़की के पास बैठने का मौका हाथ लगा था तो उसके शीशे को ऊपर-नीचे करने का भी. आजकल की कारें तो पावर-विंडो से लैस होती हैं. तब वालियां हस्त-कमॆ पर आश्रित हुआ करती थीं. तो भई, हम पद्मिनी कंपनी की बनाई सत्तर के दशक में खरीदी गई और अभी तक तथाकथित रूप से मेनटेंड फिएट में बैठे थे. यह साल १९९४ चल रहा था. हमने मैट्रिकुलेशन की परीक्षा ही थी. परीक्षा के बाद वैसे भी कुछ नया करने का जी होता है. हम कार की सवारी कर रहे थे. वो भी फिएट की जो राजा-गाड़ी यानी एंबेस्डर की टक्कर में आई थी.
कार चली. गांव की सड़क पर कार चल रही थी. सड़क क्या थी साहब, ईंटों को तिरछे खड़ा कर उसे एकसाथ रख भर दिया था. लोग उस पर चलने लगे थे, सो वह सड़क कहाने लगी थी. हमारी फिएट किसी रानी की तरह उसी सड़क पर दौड़ी चली जा रही थी. अंदर बैठे हम और हमारे भाई-बंधु. हा-हा-हा, ही-ही-ही, हू-हू-हू आदि जैसी हंसने सरीखी आवाज कभी-कभार कार से बाहर आ जाती थी. यह पता उससे लगता था जब बाहर सड़क पर जा रहा साइकिल सवार कार की हानॆ से हड़बड़ा कर कार की ओर देखने लगता था. खैर, कार अपने लक्ष्य से अभी पांच किलोमीटर दूर थी. उसमें बैठे एक भाई को शु-शु हो आई. यह आई तब थी कार बियाबान में चल रही थी. ऐसा नहीं था कि रात थी और किसी भूत-वूत का खतरा था. पर भई कार थी, बियाबान में कैसे रुकती. रुक भी जाती तो दरवाजा कैसे खुलता. दरवाजा खोलने के लिए ड्राइवर को पूरा त्रिपेक्षण करके आना पड़ता. ड्राइवर ही क्यों गेट खोलता, इसका कारण ये था कि सिफॆ वो ही कार में गेट खोलना जानता था. बाकी सब खिड़की के पास बैठकर हवा खाने वालों में से थे. तो भाई साहब का शु-शु. अब भी एक उलझन थी. दरअसल शु-शु बिना जल यानी पानी लिए हो नहीं सकती थी. इसलिए किसी तालाब या पोखर के सामने ही कार रोकी जा सकती थी. गांवों के रास्ते में अमूमन कई तालाब और पोखर होते ही हैं. लेकिन हमारी कार चलते-चलते जिस जगह पर पहुंच गई थी वहां कम से कम साफ पानी से भरा ऐसा कुछ भी नहीं दिख रहा था. अब क्या हो. समस्या मुंह बाए खड़ी थी, बेहतर समाधान पीछे छुट गए थे, कामचलाऊ यहां मिल नहीं रहे थे. खैर, ड्राइवर ने एक ..खत्ता.. (वैसे गड्ढे जहां अस्थाई तौर पर पानी जमा हो जाता है) देखा. भाई साहब ने भी देख लिया था यह उनका चेहरा बता रहा था. कार रुकी. भाई साहब उतरे. हो आए. लेकिन ड्राइवर ने शैतानी की थी. वह भी चला गया था. हमें कार में ही छोड़ गया था. मुसीबत ये थी कि हम में से भी कइयों को शु-शु करनी थी. पर कार का दरवाजा कैसे खुलेगा ये नहीं पता था. हम बैठे ही रह गए. भाई साहब आ गए. कार चल पड़ी. वे चूंकि आराम पा चुके थे. उनके मुंह से काफी राहत भरी बातें निकल रही थीं. बाकी खोए-खोए से दिख रहे थे. कुछ देर तक तो सब उनकी सुनते रहे. लेकिन हद की भी सीमा होती है. एक उबल ही पड़ा. उसके देखे-देखे और धीरे-धीरे भाई साहब की ओर कभी तीखे तो कभी मधुर कटाक्ष बरसने लगे. भाई साहब की समझ में नहीं आ रहा था कि अभी तक लक्ष्मण बने भाइयों को रास्ते में कौन विद्रोही होने का पाठ पढ़ा गया. वे सोच में डूब गए. जब नतीजा कुछ न निकला तो अंततः पूछ ही लिया कि भई क्या हो गया. सब एकाएक से नाराज क्यों हो गए. तब तक हमारी कार अपने लक्ष्य पर पहुंच चुकी थी. ड्राइवर के दोनों कान कुछ देर पहले से ही गेट खोलने संबंधी अनुनय-विनय सरीखी बातें सुन-सुनकर ऊब चुकी थी. उसने झट गेट खोल दिया. हम उतर गए यह जाने बिना कि भाई साहब ने कुछ पूछा था.
शुक्रवार, 7 सितंबर 2007
बैठे ठाले
दरअसल, परदे के पीछे की असलियत दिखाना माद्दे की बात है। सब में नहीं होता। कुछ लोग अमूमन इसका दम भरते रहते हैं, कुछ करते रहते हैं लेकिन होता-जाता कुछ नहीं। अब वामदलों को ही ले लीजिए। उन्होंने जो परमाणु करार के पीछे की असलियत देख ली होती तो शायद दिखा देते। पर कांग्रेस वालों और खासकर अपने 'मनजी' ने जो २८ सितारों वाला परदा करार के आगे तान रखा है उसके भीतर वाम तो क्या उन सितारों के कभी फरमाबरदार रहे दक्षिण वालों को भी एक झलक नहीं देखने दे रहे हैं। मामला यहीं आकर तन जाता है. वाम वाले 'झलक दिखला जा' की जिद पर अड़े हैं, और मनजी हैं कि, 'जिद ना करो' पर ध्यान धरने की धमकी, सलाह और जो भी कह लें, दिए जा रहे हैं.
वैसे अपने मनजी अच्छे बच्चे हैं. सोनिया ने जब उनसे कहा कि प्रधानमंत्री बन जाओ, तो वे डर गए. गुरशरण जो उनके वित्त मंत्री रहते सरकारी वह भी गैर-नौकरशाही बंगला देख चुकी थी, ने भी कहा, ऐसा भी क्या है जब मैडम कह ही रही है तो प्रधानमंत्री बनने में तुम्हारा क्या जाता है, बन जाओ. मगर मनजी तो ठहरे पाई-पाई को देखने वाले. बीवी को समझाया कि प्रधानमंत्री वह नहीं जो मैं पहले था. जो जी में आया कर दिया. अब तो 'दूसरों' के जी को देखकर सब्जी (आप इसकी जगह बहुराष्ट्रीय उत्पाद का कोई पापुलर नामलेवा चीज को रख सकते हैं) खानी होगी. लेकिन औरों की तरह मनजी की बीवी भी महिला ही है, सो वो कहां मानने वाली थी. और न मानी. थक-हारकर मनजी को प्रधानमंत्री बनना पड़ा. पर अब भी एक डर था सो पहुंच गए मैडम के पास. कहा, वहां जो उस चेयर पर बैठ के मैं कुछ कहूंगा तो इधर-उधर हो गया तो. मैडम समझ गई कि लौंडा नया है. उन्होंने डर दूर करते हुए कहा, बेटा तू जिस सूली को देखकर उस पर चढ़ने से डर रहा है, उससे डर मत. बगलवाली दीवार के पीछे मैं खड़ी हूं. मनजी को राहत मिली कि चलो यहां भी मैं अकेला नहीं रहूंगा. सो वे मान गए.अब तक आपकी समझ में आ ही गया होगा कि परदे का क्या महत्व है और होता है. बाकी कल........ (हच वाला नहीं)
सोमवार, 27 अगस्त 2007
खुश होने के बहाने
अभी हाल ही में मेरी बीवी घर गई. कहा ये था कि जल्दी आएगी. मैंने सोचा ''पहली बार बीवी घर जा रही है शायद मुझे रहने, खाने या 'पीने' में दिक्कत होगी. लेकिन दो ही दिनों में महसूस हुआ कि ज्यादा एनेर्जेटिक हो रहा हूँ। काफी दिनों से जो पढ़ाई छूट गयी थी उसे पुनः चालू कर लिया. यहाँ तक कि रोजाना दफ्तर से आकर खाना खाने कि नौबत या दबाव भी थोड़ी कम हो चली. ख़ूब मस्ती की और एक दिन तो जाम भी छल्काए. वो रात में तबियत गड़बड़ा गयी वर्ना पकड़े भी नही जाते. खैर, दो दिनों बाद बीवी का फोन आया. मैं राहत से था, ये कह दिया, वो भी ठीक थी ये जान लिया. मुसीबत तब आयी जब उसने ये पूछा कि 'मैं आ जाऊं'. मैं चाहते हुये भी उसे जवाब देने से हिचक रहा था. वो थी कि चढ़ी ही जा रही थी. मैंने कहा, राखी नजदीक है, भाइयों को कहॉ तड़पता हुआ छोडोगी, 29 के बाद ही आना. मगर बीवी भी निकली चालाक. उसे लग गया कि ये बहानेबाजी कर रहा है. फौरन ताड़ गई. उसके बाद फोन भी नहीं किया और राखी से दस ही दिन पहले आ धमकी. मैं क्या करता. बीवी ही थी घर में रखने का सामाजिक फरमान सालों पहले जारी हो ही चुका है. कुछ न बोला. बाद के दिनों में बीवी को बता ही दिया कि तुम नहीं रहती हो तो मैं सुकून से रहता हूं. वह कलि-युगी है. न रोयी-धोयी और न बाल ही झटके. कहा, मैं भी बहुत मजे में थी. फिर मौका दे रही हूं. राखी मैं दिल्ली में मनाउंगी, पहुंचा आना. सोचिए जरा, बीवी की बात मैं टाल सकता था....
बुधवार, 22 अगस्त 2007
जाहि विधि राखे 'राम...'
पुरानी कहावत है ये. बुजुगॆ गाहे-बगाहे आजमा लिया करते थे. नौजवानों पर अमूमन कम ही असरकारी होता था. है. हां, स्त्रियां जरूर अपवाद रही हैं. उन्हें कहावत से गुरेज तो नहीं होता, अलबत्ता 'रानी झांसी' बनते वक्त वो इससे किनारा कर लिया करती हैं. सिलसिला अनादि काल से चला आ रहा है. मीडिया दफ्तरों में 'राम' की जगह 'दूसरे' नाम ले लिया करते हैं. दिखाऊ माध्यम यानि टीवी में राम की जरूरत संभवतः बड़े मामलों में पड़ती है. रद्दी के लिए ज्यादा उपयुक्त आजकल के अखबारों में हर वरिष्ठ पद पर बैठा शख्स इस 'राम' का 'यूज' कर लिया करता है. कोई खबर ठीक से 'फ्लैश' न हुई तो राम डांटेंगे, तथ्य कम हों तो राम गुस्सा होंगे, ठीक से 'प्रेजेंट' न किया तो राम तुलना करेंगे, और गर छूट गई तब तो समझिए नौकरी जाते-जाते ही बचेगी। अव्वल ये राम न हुए तोप हो गए।
दरअसल, दफ्तरों का माहौल ही ऐसा होता है कि वरिष्ठों के 'दिग्दशॆन' को नजरअंदाज करना खतरे से खेलने के माफिक बन जाता है।
एक वे हमारे और हम सबके वरिष्ठ राम से 'दावे' के साथ रोजाना मिलते हैं, मिलते न सही तो बातचीत तो रोजाना हो ही जाती है।
दूसरा, उनके पास 'अ-पार' अनुभव होता है,
तीसरा, वे 'इन-चाजॆ' होते हैं,
चौथा, उनकी रगों में हमसे ज्यादा 'स्वामी-भक्ति' का खून बहता है,
पांचवां, उन तक वो सारी 'चीजें' पहुंचती हैं जिनसे 'आम तबका' महरूम रहता है,
छठा, वे राम की 'इच्छाओं' को भी बखूबी जानते-समझते हैं,
सातवां, उनमें 'विपरीत परिस्थितियों' में भी काम करते रहने और उसका डंका पीटने की अद्भुत क्षमता होती है,
आठवां, वे हमेशा ही गंभीरता का चोला ओढ़े बड़े मिलनसार व्यक्ति होते हैं,
नौवां, उनमें राम-प्रिय होने जैसी खूबियां भी होती हैं,
अंत में दसवां, वे आपके 'जस्ट बॉस' होते हैं।
वरिष्ठों में इससे इतर भी कई खूबियां हो सकती हैं, अलबत्ता होती भी हैं, कही भी जाती हैं। आप मीडियावाले इससे बेहतर कई और खूबियां भी निकाल सकते हैं. स्वतंत्र हैं. इसलिए वरिष्ठों की बात का 'बुरा' नहीं मानना चाहिए. ऐसा लोग कहते हैं. उनकी बात को धेले-भर का भी नहीं मानना चाहिए, ऐसी भी बात नहीं. लेकिन वो कहते हैं न कि 'पगड़ी बची रहे'। इसलिए इतना मत बात-मानू बनिएगा। यह सही है कि राम की विधि से रहने में कोई खतरा नहीं है मगर राम का ही चलते रहने देने से खतरा हो सकता है, अतः थोड़ा संभलकर।
नोट - नौकरी करते रहने और बॉस को पटाकर रखने से यदि राम-कथन का भला होता हो, तो बुराई नहीं, क्यों?
सोमवार, 20 अगस्त 2007
हम क्यों बोलते नहीं...
बोलने का इतिहास विश्वभर में और खासकर भारत में समृद्ध है. बतरस की कला हमारी देसज संस्कृति का अभिन्न हिस्सा हुआ करती थी, और है. फिर भी हम बात-चीत में कमजोर पड़ते हैं. क्यों, यह संभवतः कठिन प्रश्न है. और तो और आपके लिए यह सोचना भी मुश्किलात खड़ी कर सकता है कि बातों से जीतना हम जैसों के लिए मुहावरा सरीखा है. इतने पर भी बोलने में हम कमजोर सिद्ध होते हैं, इसकी पड़ताल जरूरी है. करें क्या..., अजी छोड़िए, पड़ताल कर हम क्योंकर अपनी आफत मोल लें. वे वरिष्ठ हैं, वे सोच लेंगे. हा...हा...हा...
सोमवार, 13 अगस्त 2007
इन भक्तों की बलिहारी
सावन की फुहार जीवन में आनंद लाती है। ऐसा कविगण कह गए हैं. अब कह गए तो कह गए. इससे भला कांवड़ियों का क्या. उन्हें तो शिवरस में भीगना है, भीगेंगे. लोगों पर आफत आए तो आए, अपनी बला से.ऐसा मानस शिवभक्त कांवड़ियों के लिए बनना सावन के शुरुआती दिनों के दौरान पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इलाकों में हर साल बनता है. सोचिए यदि आपको भी दो घंटे की यात्रा चार घंटे में पूरी करनी पड़े तो, खटारा सी बसों में ऊंघते और मुंह से लार चुआते यात्रियों के साथ सहयात्रा का सुख लेना पड़े, बीच-बीच में अकस्मात ही बम-भोले या हर-हर महादेव का विचित्र तरीके का आलाप सुनना पड़े, या फिर नालियों में बजबजाते कीड़े-मकोड़ों की तरह बस अड्डों पर लोगों को दोने और पत्तलों में जूठनों की तरह पकौड़े खाते देखना पड़े तो जाहिर है इन सबकी जड़ में मौजूद शिवलिंगाभिलाषी कांवड़ियों को आप ...नमन... तो करेंगे ही. हां, ये लिहाज जरूर करेंगे कि सामूहिक तौर पर उन्हें या उनकी दयनीय दशा देखकर थोड़ा रुकेंगे और कुछ बोलेंगे नहीं. कांवड़ियों की दशा दयनीय इसलिए कि एक तो ...बेचारे... जल भरकर इत्ती दूर से उन्हीं के लिए खुली और फैली सड़क पर लाते हैं, तिस पर से पैर में उग आए फफोलों से कराहते रहते हैं. तनिक रुकिए, इस स्थिति में आपके लिए (यदि आप कारटूनिस्ट भी हों तो) कांवड़ियों से उत्पन्न हास्य का बोध करा दूं. होता ये है कि कांवड़िए जाते तो समूह में हैं. यानि गाड़ियों में भरकर. मगर वहां से आते वक्त शिव की भक्ति से इतना उद्वेलित या कह लें उत्प्रेरित हो जाते हैं कि इनकी गाड़ियां इनके पीछे चलती हैं और ये बड़े ...मजे... में आगे-आगे जल उठाए चलते रहते हैं. यहां हास्य बोध उत्पन्न करने के पीछे मेरा तकॆ भले एक कारटूनिस्ट को मैटर उपलब्ध कराना रहा हो, लेकिन जानकारी यह है कि ऐसे कई पढ़े-लिखे कांवड़िए आपको यूं ही मिल जाएंगे. अब ये गुत्थी तो मेरे समझने से बाहर है कि बाबा भोलेनाथ के द्वार तक गाड़ी से चढ़कर जाने में ज्यादा भक्ति होती है या वहां से लौटकर आने में. वैसे गाड़ी से चढ़कर जाने की इच्छा यदि मेरे जैसों से पूछी जाए तो अपने घर यानि वह गांव जहां का मैं दरअसल हूं, वहां जाना ठीक रहता है. इससे एक तो झांकी अच्छी बनती है, दूसरा मां-बाप को भी लगता है कि बेटा अब काम का हो गया है. खैर, ये कांवड़िये अपने फफोलों से कराहते हैं और इनसे आच्छादित पूरा इलाका इनकी भक्ति से. बसें बंद रहती हैं, ट्रेनों में जगह नहीं रहती, जगह-जगह पुलिस बैरिकैडिंग से घिरे इलाके दिखते हैं... रहते हैं तो बस ये कांवड़िए और ये कांवड़िए. हमारे रविनदर भइया का कहना है कि सब प्रशासन की चूतियैय है. ये चाहे तो कभी राजमागॆ (दिल्ली-देहरादून राष्ट्रीय राजमागॆ) बंद न हो.
हम दो-तीन दिन तक जब तक कि कांवड़िया जनित महिमा उनके श्रीमुख से सुनते रहे. जब से होश संभाला है देखते रहे हैं कि घर के बड़े लोग बड़े ही चाव और भक्ति से बाबाधाम जाने के लिए कमर कसा करते थे. ऐसे में बाबा के प्रति भक्ति यहां कम होगी, यह क्यों मान लेते. जो दिक्कत है उसे सहना धमॆ की दृष्टि से जायज समझकर अखबारों में सर धुन लिया करते थे. इसलिए रविनदर भइया के तकॆ से लगता था कि ये भी हमारी ही तरह ...नास्तिक... हो गए हैं इसलिए ऐसी बहकी-बहकी बातें करते हैं. लेकिन भइया कहते हैं न कि मुसीबत अपने सर पड़ती है तभी समझ में आता है. तो हमारी समझ में एक दिन आ गया कि क्यों रविनदर भइया परेशान रहते हैं. उस दिन बसें कम थीं, हम स्टैंड में कान से मोबाइल का फुंतरू सटाए गाना सुन रहे थे, पेपर वाला पेपर बांच रहा था, बेच रहा था, छोले-कुल्चे की दुकानों पर लोग आ-जा रहे, खा-जा रहे थे, स्टैंड का इंचाजॆ चिल्ला-चोट मचाए था, पुलिसवाले एक के बाद एक धड़ाधड़ लोगों का चेकिंग किए जा रहे थे, दूसरे राज्यों की बसें शान से चली जा रही थीं, लेकिन मेरठ जाने वाली बसें भर नहीं आ रही थीं. हमारा मेरठ आना जरूरी था, रविनदर भइया को धमॆसंकट से उबारना था. लेकिन धन्य हो कांवड़ियों की जिनके कारण बसों की सेवा एक तो कम ऊपर से बाधित थीं. हमारी समझ में आ गया कि क्यों रविनदर भइया प्रशासन को कोसते हैं. तुरंत शपथ लिए कि अब हम भी उन्हीं के ग्रुप में रहेंगे और कांवड़ियों को गरियाएंगे. गुस्सा इतना आ रहा था कि पास पड़ी मक्खी को हमने लगभग रौंद ही दिया था, लेकिन वह उड़ गई. हम अफसोस करते रहे. पूरे दो घंटे बाद बस मिली और उसके पांवदान पर सीट. जैसे-तैसे मेरठ आ गए. दिल्ली में जो तरंग उठी थी कि इनके खिलाफ आवाज बुलंद करेंगे, यहां आकर थकान और हिंदू होते हुए ब्राह्मण कुल में जन्म लेने के कारण ज्वार-भाटा बनने से पूवॆ दब गई. दबे-कुचले स्वरूप में अब आप लोगों तक पहुंचेगी. अब आप लोगों को दबे-कुचलों की आवाज उठाने की आदत तो है ही, उठाइएगा. समय तो बीत चुका है. कोई बात नहीं अगले साल......
शुक्रवार, 27 जुलाई 2007
प्रोफेसर कलाम को एक पत्र
आदरणीय कलाम साहब
आप राष्ट्रपति पद से आजाद हो गए हैं। बहुत खुशी की बात है। कम से कम अब आप देश को और भी ज्यादा सुलभ हो सकेंगे। हमने भी इसलिए अभी आपको संपकॆ किया कि हमसे मुखातिब होने में राष्ट्रपति का अति व्यस्त वक्त अब आड़े नहीं आएगा। पूरे पांच साल आप मीडिया में छाए रहे और आप देश के अब तक के सबसे लोकप्रिय राष्ट्रपतियों में रहे। मगर राष्ट्र के प्रति और यहां की जनता के प्रति आपने दायित्व निवॆहन में दो मौकों पर कमजोरी दिखाई। पहली बार उस वक्त जब लाभ के पद को आपने स्वीक्रति दी। राष्ट्रपति की शक्तियां सीमित हैं मगर जिस तरह संविधान और कानून में मौजूद लूप-होल्स का फायदा देश को नुकसान पहुंचाने की दिशा में और अपने फायदे के लिए नेता, कानूनविग्य, अपराधी उठा लेते हैं... यह बहुत जरूरी था कि संविधान में छुपे राष्ट्रपति की शक्ति (पॉकेट-वीटो) का आप प्रयोग देश हित में करते, पूरा देश आपका क्रतग्य रहता। आपके पास तो सुप्रीम कोटॆ और तमाम संविधानविद इस मुद्दे पर सलाह देने के लिए उपलब्ध थे, आपने लिया भी होगा। परंतु निश्चित रूप से विवाद में फंसने और राष्ट्रपति के कतॆव्यों को घोर राजनीतिक-प्रक्रति (पोलिटिसाइज्ड) से बचाने को आपने इस दिशा में आधे रास्ते पर ही अपना कदम रोक लिया। आखिर में फिर आपने राजनीति करने से परहेज किया और राष्ट्रपति चुनाव से पीछे हट गए। आपके उस वक्त दिए गए बयान से साफ जाहिर हो रहा था कि राजनीति का कमॆ स्वच्छ तो नहीं ही है, आपको ये आशंका भी थी कि राजनीति में यदि आप डूबे तो आप विवादित हो जाएंगे और राजनीति करना एक गंदी नीति मानी जाएगी। विडंबना है कि देश के राष्ट्रपति का बयान यह संदेश देता प्रतीत होता है कि राजनीति साफ शब्दों में अच्छे लोगों का कमॆ नहीं, और न यह आसान है। देश की राजनैतिक व्यवस्था राजनीति से ही संचालित हो रही है। देश का वास्तविक नेता प्रधानमंत्री प्रत्यक्ष तौर पर राजनीति से ही इस पद पर पहुंचता है और देश के अंदर व पूरे अंतरराष्ट्रीय मंच पर राजनीतिक कौशल उसे दिखानी पड़ती है। देश का सांविधानिक प्रमुख राष्ट्रपति भी अप्रत्यक्ष तौर पर राजनीति से ही चुना जाता है, इस बार तो पूरे चुनाव के दौरान यह प्रत्यक्ष भी दिखा। ऐसे में जब देश को आप जैसा काबिल राष्ट्रपति नसीब हो सकता था आपने राजनीति से बचाव में ऐसा न होने देने का अपराध किया। कौटिल्य से लेकर चोम्स्की, लास्की और गांधी तक ने राजनीति से परहेज नहीं किया और परंपराओं से लेकर आज तक अपने देश या विश्व में कहीं भी शासन व्यवस्था बिना राजनीति के मुमकिन नहीं। राजनीति को गलत लोगों ने अपने फायदे के लिए इसे गंदी नीति के रूप में कुख्यात कर डाला है, पर रियाया के लिए आप जैसे प्रमुख को राजनीति तो करनी ही चाहिए।
सोमवार, 23 जुलाई 2007
कश्चितकांता विरहगुरुणा...
पिछले एक महीने से बारिश की उम्मीद लगाए बैठे लोग-बाग खेतों में दम तोड़ती फसलों को देखकर हतप्रभ हैं । एक-दूसरे से पूछते हैं, बारिश के आसार हैं भई ? फिर प्रश्न के साथ जवाब के लिए जूझने में लग जाते हैं । दिन भर में जब कभी-कभार आसमान में बादल दिख भी जाते हैं तो उनकी सूरत रोनी ही होती है । फिर किसान तो किसान हैं बादलों की शैतानी देखने की उन्हें आदत है । लेकिन प्रेमी क्या करें ? उन्हें तो बादलों की जरूरत है भी और नहीं भी । मन की तरंग को उल्लास के साथ बहने देने के लिए बादल चाहिए, बाग में एक-दूजे से आराम से मिल सकें इसके लिए आसमान खुला होना भी जरूरी है । फिर जब ये बादल बरसे भी न तो बाग कहां से हरियाली पाए और प्रेमी किस झाड़ी को ओट बनाएं । और तो और खल-नायकों का डर भी तो बना होता है जो गाहे-बगाहे उन पर नजर रखे होते हैं । बारिश उन्हीं खल-नायकों से बचाती है इन प्रेमियों को । अव्वल एक तो ये खल-नायक बारिश की बूंदों को सह नहीं पाते, दूसरा प्रेमियों की मनोदशा से इनका सरोकार नहीं होता, फिर बारिश की बूंदों का क्या मतलब। तब बताएं कि विरह की मनोदशा में पड़े प्रेमियों के लिए बादलों ने अति कर रखी है या नहीं । कालिदास शायद इसीलिए रो रहे हैं ।
बुधवार, 18 जुलाई 2007
जीनियसों का जिक्र
मंगलवार, 10 जुलाई 2007
चंद्रशेखर कि याद मस्तिष्क को उस दौर-ए-ज़माने में ले जाती है जब हम उन्हें 'भोंड्सी के संत' के रूप में जानते थे। 'माया' उन्हें भोंड्सी का संत कहा करती थी और तिवारी जी (नारायण दत्त तिवारी) को 'नई दिल्ली तिवारी'। हम हंसा करते थे और 'इस' राजनेता कि बचपने जैसी खिल्लियाँ उड़ाया करते थे। हम तीन भाइयों को ये पता नहीं होता था कि इसके चले जाने से हमारा ऐसा नुकसान हो जाएगा। फिर वो दिन भी आया जब भोंड्सी बाबा को बडे राजनेता के रूप में हमने जाना। कालांतर में यह जान लिया कि हरियाणा कि वो जगह जहाँ 'बाबा' ने आश्रम बनाया वो भोंड्सी थी। कल जब डेस्क पर उस भोंड्सी में बाबा की लगायी हरियाली को अरावली कि पहाड़ियों में लहलहाते देखा तो अनायास ही उनके कराए कार्य से श्रद्धा उमड़ आयी।
एक बार की और याद आयी। हम सभी लोग पश्चिमी चम्पारण के लौडिया में थे। चंद्रशेखर अपनी भारत यात्रा के दौरान वहाँ आने वाले थे। बाबूजी तीनों भाइयों को लेकर बडे सवेरे से सभा स्थल पर पहुँचने कि जद्दोजहद कर रहे थे। हमें ये समझ नहीं आ रहा था कि आख़िर भरी धूप में वहाँ हम तीनों का क्या काम? बाबूजी थे कि उस 'पदयात्री' कि खूबियां बताये चले जा रहे थे। खैर हम पहुंच गए। बाद में पदयात्री का भाषण जो सुना 'धन्य' हो गए। समय बीता। पदयात्री हमारे जीवन में सम्मानित के तौर पर उभरा।
उसी सम्मानित का यूं चले जाना अखर गया। अखबारों ने विला-शक बेहतरीन कवरेज किया। टीवी पर शुरुआती दौर में कम खबरें (मुख्य समाचारों में निचले क्रम में आने पर) आयीं। इस पर ग़ुस्सा भी आया। ऑफिस में सम्पादकीय प्रभारी से थोड़ी पैरवी के बाद पूरा पेज दिलवाने कि ख़ुशी आत्मा को सुकून दे गयी। लेकिन चंद्रशेखर का क्या करें वो तो चले गए।
मंगलवार, 3 जुलाई 2007
गप सं चर्चा धरि
मुदा गपक एहि प्रकरण सं हमर सामंजस्य अछि अथवा नहि, एकर खोज-पुछारी केनाई प्रायः ककरो समीचीन नहि बुझा पड़ैत छलैन, तैं हम लगभग बाहरे जकां छलहुं। तात्पयॆ ई जे गप भले दू गोटेक बीच के सामग्री होय, ओकर प्रसार सरिपहुं भेनाई ओहि दुहु गोटेक अधिकार नहि।
शनिवार, 30 जून 2007
नागफनी के फूल
रास्ता लंबा न सही लेकिन उसका आभास तो कराती ही थी। खैर; रास्ते में एक नागफनी के पौधे की खूबसूरती देख मैंने लाला भाई सा कहा नागफनी यहाँ भी होता है क्या? लाला भाई विजय के बडे भाई के साले हैं उन्हें मौका मिल गया था कि जीजा के छोटे भाई के मित्र को 'रपेटो'। पर मैं तुरत संभल गया और कह उठा 'अरे ये तो पूरा झारखंड है।' लाला भाई शायद मन मसोस कर रह गए होंगे। नागफनी के उस फूल कि खूबसूरती बस इतनी नही थी कि उसकी प्रशंसा मे यहाँ आंय-बांय लिखा जाय। वह तो पूरे वातावरण को सुगन्धित और आलोकित करने की लालसा लिए वहाँ अपनी उपस्थिति दर्ज करा रह था। मैंने घर पहुँचने के बाद रूपेश भाई से कहा ' नागफनी के फूल देख्लौंह कि?' वो चुंकि मेरे बाद आये थे। नागफनी का 'गंध' ले चुके थे। इसलिये सगर्वित होकर बोले ' अपनों दिस होइत छैक।'
सोमवार, 25 जून 2007
वर्षी पर एतेक धमाल कियेक
सोमवार, 18 जून 2007
ब्लौग पर आकर
तो बहनो और भाईयों, होशियार हो जाओ! हम आ रहे हैं तुम्हारे कंप्यूटर के की-बोर्ड तक, ताकी तुम्हे हिसाब बराबर करने का अफ़सोस न रहे। जितना कमेंट हमने तुम्हारे ब्लौग पर किया है, यदि उतना ही पूरा न हुआ तो समझना कुट्टी, हाँ!
-
प्रयागराज के आसमान से ऐसी दिखती है गंगा. (साभार-https://prayagraj.nic.in/) यह साल 1988 की बात होगी, जब हम तीन भाई अपनी दादी की आकांक्षा पर ब...
-
खुश होने के कई कारणों के पीछे, होते हैं कई अंतराल, बीच की कुछ घटनाएं उन्हें जोड़ती हैं, एक नया अंतराल जनमाने के लिए. कुछ ऐसा भी घटित होता है...
-
पराठे तो खाए होंगे आपने. साथ में भले ही हलवा न खाया हो. खैर आजकल हलवा-पराठा की चासनी में डूबा हुआ है. भई, मानना पड़ेगा कि कुछ तो खासियत होती...